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मृदा पर निबंध Essay On Soil In Hindi

मृदा पर निबंध Essay On Soil In Hindi : नमस्कार दोस्तों आज का निबंध मृदा अथवा मिट्टी पर दिया गया हैं. प्रत्येक जीवित प्राणी का मिट्टी से अस्तित्व जुड़ा है यह हवा, जल की तरह आवश्यक संसाधन है.

आज के निबंध, भाषण, अनुच्छेद (पैराग्राफ) में हम जानेगे कि मृदा क्या है इसका अर्थ मृदा प्रदूषण अपरदन इसका महत्व इस शोर्ट निबंध में दिया गया हैं.

Here Is Essay, speech, paragraph on soil For Students. Read short about What is soil, its meaning, soil pollution erosion, its importance In Hindi Language.

मृदा पर निबंध Essay On Soil In Hindi

मृदा हमारे जीवन का मूल आधार हैं. अधिकांश मनुष्य बस्तियां उन्ही क्षेत्रों में मिलती है जहाँ अच्छी और उपजाऊ मृदा उपलब्ध हैं. मृदा, पेड़ पौधों की वृद्धि के लिए एक प्राकृतिक माध्यम हैं. पौधे अपने भोजन के अधिकतर पोषक तत्व मृदा से ही प्राप्त करते हैं.

वनस्पति जीवन के लिए महत्वपूर्ण यह मृदा मूल शैलों के विखंडित पदार्थों से बनती हैं. इसमें अनेक खनिज पदार्थ जीवाणु, फफूंद और छोटे बड़े अनेक प्रकार के कीड़े मकोड़े रहते हैं. मृदा में मिलने वाले ये सभी तत्व और जीवाणु उसकी उर्वरता को प्रभावित करते हैं.

चट्टानों के प्रकार, जमीन की भौतिक विशेषताओं, जलवायु और वनस्पतियों आदि के संबध में विभिन्न स्थानों में अंतर होता हैं यही कारण है कि पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती हैं. मिट्टी में विभिन्नताओं के कारण ही हमें विभिन्न प्रकार की फसलें, घास तथा पेड़ पौधें प्राप्त होते हैं.

जिस मृदा में पौधे और फसलें आसानी से पैदा हो जाती है, उसे उर्वर मृदा तथा जिसमें कोई भी पौधें नहीं उगते हो उसे अनुर्वर या ऊसर मृदा कहा जाता हैं.

सामान्यतः नदी घाटियों की मिट्टी उपजाऊ होती हैं. इसके विपरीत पर्वतीय और पहाड़ी ढालों पर स्थित छिछली और अनुपजाऊ मिट्टी खेती के लिए बहुत कम महत्व की होती हैं.

इस प्रकार मिट्टी की किस्म का कृषिगत उत्पादन से प्रत्यक्ष संबध होता हैं. क्षेत्र की जलवायु, धरातल और चट्टानों में विविधता का प्रभाव मृदा आकारिकी एवं उसके भौतिक व रासायनिक गुणों पर पड़ता हैं जो देश में भिन्न भिन्न प्रकार की मिट्टियों को जन्म देता हैं.

Essay # 1. मिट्‌टी का अर्थ (Meaning of Soil):

विभिन्न रासायनिक घटकों के मिश्रण को सरल भाषा में मृदा कहा जाता हैं. मूल रूप से मृदा अवक्रमिक शिलाओं के टूटने से बनती हैं जिसमें बाद में अन्य रासायनिक पदार्थों मिल जाते हैं. भले ही मृदा स्वतः निष्क्रिय रूप में हो मगर इसमें अनगिनत रासायनिक अपघटक एवं अभिक्रियाएँ सदैव चलती रहती हैं.

जीवशास्त्रियों ने मृदा को अजैविक घटक मानने के साथ ही जीवन के लिए आवश्यक सबसे मूलभूत पदार्थों में से एक मानकर इसे जीवन सहायक की भूमिका के रूप में अध्ययन का विषय माना हैं.

मृदा परत के रूप में पृथ्वी की ऊपरी सतह पर पाई जाती हैं जो पौधों को कठोर आधार प्रदान करती हैं. मृदा में ही एक बीज जल वायु और खाद के सम्पर्क में आने पर पौधें का रूप धारण करता हैं.

Essay # 2. मृदा अपरदन या क्षरण (soil erosion)

मिट्टी की एक से दो सेंटीमीटर मोटी परत बनने में लगभग दो शताब्दियाँ लग जाती हैं, किन्तु यह बनी बनाई मिट्टी कुछ ही समय में नष्ट हो सकती हैं. मृदा की ऊपरी सतह पर से उपजाऊ मृदा का स्थानांतरित हो जाना मिट्टी का कटाव या मृदा का अपरदन कहलाता हैं.

इससे मृदा के पौषक तत्व भौतिक बनावट व रासायनिक सरंचना विनष्ट हो जाती हैं व उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती हैं. मृदा का स्थानांतरण बहते हुए जल, पवन अथवा हिम के साथ होता हैं. मृदा क्षरण को रेंगती हुई मृत्यु (Creeping death) कहा जाता है.

मृदा क्षरण या अपरदन दो प्रकार से होता हैं.

  • जलीय क्षरण- जल के विभिन्न रूपों नदियों, झीलों, हिमानी झरनों आदि से मृदा का क्षरण होता हैं. इनमें से नदिया बहते पानी के रूप में सर्वाधिक मृदा क्षरण करती हैं. इससे मृदा क्षरण मुख्यतः जलीय क्षरण व अवनलिका क्षरण के रूप में होता हैं जल द्वारा मृदा की ऊपरी सतह को हटा देने को तलीय या परत क्षरण कहते हैं. जब जल तेजी से बहता हुआ मृदा को कुछ गहराई तक काट देता है तो इसे अवनलिका क्षरण कहते हैं.
  • वायु क्षरण – मरुस्थलीय क्षेत्रों तथा शुष्क व अर्द्धशुष्क मैदानों में जहाँ वायु अबाध रूप से चलती हैं वायु द्वारा मृदा क्षरण होता हैं. इसमें वायु द्वारा मिट्टी का एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाकर बिछा दी जाती हैं.

Essay # 3. मृदा अपरदन के कारण (Cause Of soil erosion)

  • वनों का हास तथा अन्धान्धुध कटाई
  • वर्षा पूर्व मरुस्थलीय अंधड़
  • कृषि के अवैज्ञानिक तरीके
  • ढालू भूमि में जल की तेज धारा से मृदा अपरदन
  • चारागाहों पर अंधाधुध चराई भेड़ बकरियों द्वारा वनस्पति को अंतिम बिंदु तक चरकर उसे खोखला बना दिया जाता हैं.
  • पहाड़ी क्षेत्रों में आदिवासियों द्वारा वालरा कृषि

समस्या के कुप्रभाव

  • भीषण तथा आकस्मिक बाढ़ों का प्रकोप
  • निरंतर सूखा
  • भू जल स्तर का गिरना
  • नदी/ नहरों का मार्ग अवरोधित होना
  • कृषि उत्पादन का निरंतर क्षय
  • वायु अपरदन से बोई गई फसल का अंकुरण नहीं होना.

Essay # 4. मृदा अपरदन को रोकने के उपाय (Measures to prevent soil erosion)

  • जंगलों व चारागाहों की वृद्धि करना
  • चराई पर नियन्त्रण रखना
  • खेतों में मेडबंदी करना
  • ढालू भूमि पर कंटूर कृषि को बढ़ावा देना
  • पट्टीदार खेती को प्रोत्साहित करना
  • फसलों को हेर फेर क्र बोना एवं समय समय पर खेतों को पड़ती छोड़ना
  • नदी के तेज बहाव को रोकने के लिए बांधों का निर्माण करना
  • वृक्षारोपण करना ताकि मरुस्थलीय क्षेत्रों में मिट्टी को उड़ने से रोका जा सके तथा नदी के किनारों पर मिट्टी के कटाव को रोका जा सके.
  • मरुभूमि के अनुकूल वृक्षों जैसे खेजड़ी, कीकर, रोहिड़ा, जोजोबा, नीम, बोरडी, फोग आदि की खेती को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
  • सिंचाई के साधनों का विकास किया जाना चाहिए ताकि जलाभाव की समस्या दूर हो सके व अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जा सके.
  • सूखी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए तथा बूंद बूंद सिंचाई व फव्वारा सिंचाई का उपयोग किया जाना चाहिए.
  • ऊर्जा के वैकल्पिक व पुनर्नवीकरणीय स्रोतों का विकास किया जाना चाहिए ताकि कोयले व जलाने की लकड़ी की बचत कर जंगलों को कटने से रोकना चाहिए.

लवणीयता व क्षारीयता की समस्या:  पानी के अत्यधिक प्रयोग की वजह से भूमि में लवणीयता व क्षारीयता की समस्या बढ़ी है जिससे भूमि बंजर हो जाती हैं.

मिट्टी में लवणीयता की समस्या को कम करने के लिए रॉक फास्फेट का प्रयोग किया जाता हैं. धमासा व सुबबूल आदि खरपत वार को मिट्टी में दबाने से भी यह समस्या कम हो जाती हैं.

मिट्टी की क्षारीयता को दूर करने हेतु ग्वार एवं ढेंचे की फसल को काट कर खेत में ही दबा दिया जाता हैं. अथवा जिप्सम का प्रयोग किया जाता हैं. मिट्टी के उपजाऊपन को बनाए रखने हेतु लाभदायक सूक्ष्म जीवों एवं केंचुओं को संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए.

सेम की समस्या : नहरी जल के रिसाव व अत्यधिक सिंचाई के कारण भूजल स्तर के उपर आ जाने से भूमि का दलदली हो जाना सेम की समस्या हैं. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती हैं.

सेम की समस्या का निदान

  • दलदली क्षेत्रों में पानी की निकासी हेतु ड्रिप ड्रेनेज कैनाल का निर्माण प्राकृतिक ढाल को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए.
  • पानी के रिसाव को न्यूनतम करने हेतु नहर की मरम्मत व लाइनिंग कार्य किया जाना चाहिए.
  • सिंचाई की आधुनिकतम तकनीकों बूंद बूंद सिंचाई पद्धति व फव्वारा सिंचाई पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए.
  • सेम नाला बनाकर पानी पुनः नहर में डाला जाना चाहिए
  • सिंचाई योग्य भूमि में वृद्धि करना.

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Farming Study - Kheti Ki Puri Jankari Hindi Mein

  • Agriculture
  • Animal Husbandry
  • Horticulture
  • Soil Science

मृदा संरक्षण किसे कहते हैं (soil conservation in hindi) - अर्थ, परिभाषा एवं मृदा संरक्षण की विधियां

मृदा संरक्षण (soil conservation in hindi) विषय है जिसके अंतर्गत मृदा का उपयोग उसकी प्रयोग शक्यता के अनुसार किया जाता है ।

भूमि का ऐसा नियोजन जिससे मृदा ह्रास न्यूनतम अथवा बिल्कुल ही ना हो  मृदा संरक्षण  कहलाता है ।

मृदा संरक्षण का अर्थ | soil conservation meaning in hindi

इस प्रकार मृदा संरक्षण एक व्यापक शब्द है, जिसका अर्थ मृदा संरक्षण के अन्तर्गत भूमि की उत्पादकता (soil productivity) को विभिन्न विकारों, जैसे - लवणीयकरण, भूक्षरण, अम्लीयता, आदि से सुरक्षित रखना है, अर्थात् भूमि को किसी भी रूप में बर्बाद होने से रोकना मृदा संरक्षण (soil conservation in hindi) कहलाता है ।

इसके अन्तर्गत भूमि की उत्पादकता को संरक्षित करने के लिये खादों का प्रयोग, फसल चक्र का प्रयोग, सिंचाई एवं जल निकास, भू - क्षरण को रोकना, मृदा को क्षारीय व अम्लीय होने से रोकना उनके सुधार, आदि बातें सम्मिलित हैं ।

मृदा संरक्षण की परिभाषा | definition of soil conservation in hindi

मृदा संरक्षण (soil conservation in hindi) - मृदा के इस प्रकार प्रयोग किए जाने का विषय है जिस प्रकार उसे किया जाना चाहिए ।

मृदा संरक्षण की परिभाषा - "मृदा संरक्षण खेती करने की वह विधि हैं जिसमें मृदा उपयोग क्षमता का पूरा-पूरा लाभ उठाकर मृदा को क्षरण से बचाया जा सकें ।"

मृदा संरक्षण किसे कहते हैं | soil conservation in hindi

भूमि के कणों का ह्रास रोकने के साथ - साथ भूमि की उत्पादकता बनाये रखना मृदा संरक्षण (soil conservation in hindi) कहलाता है । 

मृदा संरक्षण किसे कहते हैं (soil conservation in hindi) - अर्थ, परिभाषा एवं मृदा संरक्षण की विधियां

मृदा संरक्षण के सिद्धान्त | principles of soil conservation in hindi

भूमि संरक्षण का मूल सिद्धान्त भूमि का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग एवं प्रबन्ध ।

भूमि संरक्षण के तीन सिद्धान्त हैं-

  • जिस कार्य के लिये जो भूमि उपयुक्त है उसी कार्य के लिये उसका उपयोग किया जाये ( Each particle of land should be used for which it is best suited. )
  • कोई भी भूमि बेकार न पड़ी रहनी चाहिए ( No land should remain idle. )
  • मृदा उत्पादकता को उच्च स्तर पर स्थिर रखा जाये ( Productivity of land should be maintained sufficiently at high level. )

मृदा संरक्षण की प्रमुख विधियां लिखिए | methods of soil conservation in hindi 

अतः मृदा के प्रतिकारकों को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित उपाय मृदा संरक्षण के लिये कारगर हो सकते हैं -.

  • कृषि विधियाँ या सस्य वैज्ञानिक विधियाँ ( Agricultural Methods )
  • यांत्रिक विधियाँ ( Mechanical Methods )
  • वृक्षारोपण एवं घास रोपण ( Afforestation and Agrostological Methods )

1. कृषि विधियों द्वारा मृदा अपरदन रोकना -

समोच्च खेती ( contour cultivation —  ढालू भूमियों में जुताई, बुवाई, सिंचाई, गोड़ाई, आदि कृषि क्रियायें ढाल के विपरीत दिशा में समोच्च रेखा पर करनी चाहिये । शुष्क तथा नम दोनों ही प्रकार की जलवायु वाले कृषि उपयोगी है । कम वर्षा वाले क्षेत्रों में समोच्च कृषि भूमि में जल संरक्षण व समुचित वितरण में सहायक होती है । अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसके द्वारा अपधावन जल को अवरुद्ध करके, भूमि में जल प्रवेश बढ़ाकर क्षरण हानि को रोका जा सकता है । भू - परिष्करण ( tillage ) -  भूमि संरक्षण के लिये जुताई तथा उसकी गहराई का विशेष महत्व है । भारी भूमियों अधिक एवं गहरी जुताई जल प्रवेश को बढ़ा देती है । हल्की भूमियों में बहुत अधिक जुताई नहीं करनी चाहिये । ग्रीष्म ऋतु की जुताई जल प्रवेश के बढ़ाने में सहायक होती है । ग्रीष्म ऋतु में खाली खेत छोड़ना लाभदायक नहीं होता । आच्छादित भू - परिष्करण ( mulch tillage ) -  भूपरिष्करण की वे क्रियायें जो खेत में ढेलेनुमा स्थिति पैदा करे और फसल अवशेषों को भूमि में मिलाने में सहायक हों , कृत्रिम आच्छादन का काम करती हैं, क्योंकि यह आच्छादन भूमि संरक्षण के साथ - साथ नमी संरक्षण के लिये भी उपयोगी होता है । शुष्क तथा अर्द्ध - शुष्क क्षेत्रों में भूमि संरक्षण के लिये v आकार यन्त्र (sweeps) या टिलर्स से भू - परिष्करण की क्रियायें करनी चाहिये । मृदा को क्षरण से बचाने के लिये मृदा की सतह प भूसा, पत्तियों या पोलिथीन का कृत्रिम आवरण बहुत ही लाभकारी पाया जाता है । पट्टियों में फसल उत्पादन या पट्टिका खेती ( strip cropping ) —  ऐसे क्षेत्र जहाँ पर जल द्वारा मृदा क्षरण की सम्भावना होती है, वहाँ पर ढाल के विपरीत दिशा में समोच्च रेखा पर क्षरण अवरोधी (erosion resisting crops) व अरोध फसलों (erosion permitting crops) को एकान्तर पट्टियों में उगाते हैं । अवरोधी फसल की पट्टी अपधावन की मात्रा व गति को कम करने के साथ-साथ ऊपर से अपधावन में बह कर लाई गई मिट्टी को भी अपने क्षेत्रों में जमा कर देती है ढालू भूमियों पर यह पट्टियां ढाल की विपरीत दिशा में रखी जाती है अवरोधी अरोधी पट्टियों की चौड़ाई साधारणतया एक व तीन (1:3) के अनुपात में रखते हैं ।, 2.  यांत्रिक  विधियों द्वारा मृदा अपरदन रोकना -, कन्टूरिंग ( contouring ) -  जब भू-परिष्करण की क्रियायें ढाल के विपरीत दिशा में समोच्च रेखा पर जाती हैं तो उसे कन्टूरिंग कहते हैं । कन्टूरिंग विधि से खेती करने पर कम वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी का संरक्षण होता है तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मृदा क्षरण से भूमि का बचाव होता है । सम्पूर्ण क्षेत्रों में नमी का समान वितरण होता है । समय , धन व श्रम की बचत होती है । वेदिका खेती ( terrace farming ) —  वेदिका खेती अपवाह जल एवं क्षरण नियन्त्रण की वह कार्य प्रणाली है जिसके अन्तर्गत भूमि के ढाल की आड़ी दिशा में मिट्टी या पत्थर के भराव (embankment) अथवा कूटक और नालियाँ (ridges and channels) बनाई जाती हैं । इन रचनाओं को ही वेदिकायें (terraces) कहते हैं । ये वेदिकायें एक तरह से चौड़ा बाँध या मेड़ होती हैं जिन पर खेती की जाती है ।  वेदिकाओं के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं -  ढाल की प्रवणता एवं लम्बाई को कम करना, कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अपवाह जल का अवरोधन तथा भूमि में नमी संरक्षण अथवा भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में अतिरिक्त अपवाह जल को सुरक्षित एवं अक्षरणशील वेग पर किसी जल मार्ग की तरफ मोड़ देना ।, 3. वृक्षारोपण एवं घास रोपण विधियों द्वारा मृदा अपरदन रोकना -, जो भूमि ज्यादा क्षरित हो गई हैं तथा जिस पर फसलोत्पादन नहीं हो सकता उन भूमियों पर वृक्षारोपण या घास रोपण कर देना चाहिये । प्राकृतिक वनस्पति का भूमि संरक्षण में अधिक महत्व है । वृक्षों एवं घासों से भूमि को अधिक आच्छादन प्रदान होता है । पेड़ - पौधों एवं घासों की जड़ें भूमि के अन्दर मिट्टी को बाँधने के साथ - साथ पृष्ठीय जल स्रवण को बढ़ाती हैं, तथा उनके अवशेष भूमि में मिलकर भूमि की संरचना व उत्पादकता में सुधार करते हैं । बबूल, बेर, बाँस, शीशम, अमलतास, इमली, देवदार सागौन, आदि वृक्षों को 1x1x1 मीटर आकार के गड्ढे खोदकर लगाना चाहिये । दूब, नैपियर, सूडान, बफैलो घास, पैरा, अंजन गिनिया, ब्लू पेनिक, टिमोथी, आदि घासें लगाई जा सकती हैं ।, you might like.

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मृदा पर निबंध: अर्थ और गठन | Essay on Soil: Meaning and Formation | Hindi | Geography

essay on soil conservation in hindi

मृदा पर निबंध! Read this Essay on Soil: Meaning and Formation in Hindi Language for School and College Students.

Essay on Soil

Essay Contents:

  • मिट्‌टी का अर्थ  (Meaning of Soil)
  • जीवित मिट्‌टी (Living Soil)
  • मिट्‌टी के नमूनों को एकत्र करना (Collection of Soil Sample)
  • मिट्‌टी की बनावट  (Formation of Soil)
  • मिट्‌टी के खनिज घटक (Mineral Ingredients of Soil)
  • मिट्‌टी की बनावट एवं छिद्रिलता (पोरोसिटी) (Texture and Porosity of Soil)
  • मिट्‌टी की उर्वरता (Soil Fertility)
  • मिट्‌टी के प्रकार (Types of Soil)
  • मिट्‌टी की संरचना (Soil Structure)
  • मिट्‌टी की पारगम्यता तथा पानी रखने की क्षमता (Permeability and Ability of Soil to Keep Water)

Essay # 1. मिट्‌टी का अर्थ (Meaning of Soil):

सबसे सरल अर्थ में मिट्‌टी को विभिन्न रासायनिक घटकी के मिश्रण के रूप में देखा जा सकता है । एक भूगर्भशास्त्री के लिए मिट्‌टी अवक्रमिक शिला है जो कुछ सीमा तक रासायनिक रूप से परिवर्तित की गई है तथा जिसमें कुछ अन्य पदार्थ मिल गए हैं । रसायनशास्त्री इसे ज्यादा उदार दृष्टिकोण से देखते हैं व इसे एक निष्क्रिय किन्तु अधिक सक्रीय पदार्थ मानते है ।

बर्झिलियस के अनुसार- “मिट्‌टी प्रकृति की एक रासायनिक प्रयोगशाला है जिसके अंत:करण में विभिन्न रासायनिक अपघटन तथा संश्लेषणात्मक प्रतिक्रियाएं गुप्त रूप से चलती रहती हैं ।”

जीवशास्त्री भी मिट्‌टी को प्रकृति का एक अजीवित अवयव मानते है । फिर भी वे इसे अन्य पारिस्थितिक कारकों के साथ अंत:क्रिया कर जीवन-सहायक भूमिका के रूप में देखते हैं ।

इस प्रकार समग्र दृष्टिकोण से देखें तो मिट्‌टी पदार्थ की एक पतली सतह है जो पृथ्वी की सतह पर फैली हुई है तथा पौधों व प्राणियों को विकसित होने के लिए ठोस आधार प्रदान करती है । यह पौधों को जमने हेतु भेदनीय ठोस आधार प्रदान कर उनके जीवन में एक विशेष भूमिका निभाती है । यह पानी तथा अन्य पौष्टिक तत्वों के भंडारण का कार्य भी करती हैं जो पौधों के विकास हेतु बहुत आवश्यक होते हैं तथा बढ़ते हुए पौधों के अपशिष्ट पदार्थों को भी आत्मसात करती है ।

यह एक रोचक तथ्य है कि मिट्‌टी की बनावट तथा उसके संरक्षण में पौधों की भी भूमिका होती है । पौधों की जड़ें शिलाओं के विघटन में उन्हें ढीला करने में मिट्‌टी की गहरी सतह तक पानी व वायु ले जाने में सहायक होती हैं । पौधे मिट्‌टी में खाद मिलाकर तथा उसकी सतह को एक संरक्षण परत प्रदान करतें हैं जो वर्षा तथा हवा से मिट्‌टी के कटाव को रोकती है और मिट्‌टी को जीवन प्रक्रिया के लिए उपयुक्त बनाते हैं ।

मिट्‌टी के वर्णन को निश्चित करना :

(a) गड्ढे के अंदर:

ADVERTISEMENTS:

(i) एक ऐसा खुला सपाट क्षेत्र चुनिए जहां लंबे समय तक कोई गतिविधि न हुई हो । बड़े पेड़ों से दूर तथा मोटी जड़ों से मुक्त एक स्थान पर निशान लगा लें । उस स्थान के ऊपरी सतह को हल्का झाड़कर वहां से डंठल तथा अन्य कोई बड़ा मलबा हो तो उसे हटा दें ।

(ii) एक गड्ढा खोदिए जिसकी कम से कम एक दीवार सीधी रखें । उसे जितना गहरा बना सकें बनाइए व्यावहारिक लोग उसे 6 फीट की गहराई तक ले जाते है । विभिन्न गहराइयों से खोदी गई मिट्‌टी को अलग-अलग रखें ।

(iii) खोदी गई मिट्‌टी को उसके रंग, डलों व खुरदरेपन आदि की दृष्टि से उसका परीक्षण करें । गड्ढे की दीवार पर विभिन्न परतों को देखने का प्रयास करें । क्या आप विभिन्न परतों जैसे कचरे की परत, खाद बहुल परत, सीधी ऊपरी परत, घनी अवमृदा आदि की पहचान कर सकते हैं । प्रत्येक परत की मोटाई को नोट करें व उस क्षेत्र की मिटटी का वर्णन तैयार करें ।

(b ) मिट्‌टी निकालने वाले पाइप के साथ:

दलदली क्षेत्र की मिट्‌टी के बनावट का परीक्षण करने हेतु एक और विधि अपनाई जा सकती है ।

(i) एक टिन का सिलेण्डर लें जिसके दोनों सिरे खुले हों । इसके लिए टेलकम पाउडर का खाली गोल टिन भी उपयोग किया जा सकता है अथवा कलईदार लोहे (टिन) की पतली चादर को गोल मोड़कर वेल्डिंग करके लंबी पाइप बनाई जा सकती है । जल-मल व्यवस्था में उपयोग में आने वाले ठोस पीवीसी पाइप का भी उपयोग किया जा सकता है । इस पाईप के निचले सिरे को धारदार बनाकर अथवा उसमें छोटे-छोटे दांते बनाकर उसे अधिक गहराई के मिट्‌टी के नमूने एकत्र करने के योग्य बनाया जा सकता है ।

(ii) पाइप के अंदर के भाग में तेल अथवा ग्रीज लगाएं तथा इसे नरम जमीन पर दबाए । यदि पाइप को झुकाकर दबाएंगे तो उसे थोड़ी कड़ी जमीन काटने में मदद होगी । इसे जहां तक संभव हो सके, नीचे जाने दे । उसे हर दिशा में हिलाए तथा सीधे ऊपर उठा लें पाइप मिट्‌टी के साथ ऊपर आना चाहिए ।

(iii) पाइप के अंदर मिट्‌टी के कॉलम को किसी समस्तरी सतह पर धीरे से धकेल कर निकाल लें । पाइप की दीवारों को धीरे-धीरे ठोंककर अथवा अन्दर की मिट्‌टी को थोड़ा सुखाकर निकालेंगे तो कालम आसानी से निकल आएगा ।

(iv) विभिन्न क्षेत्र की मिट्‌टी के कॉलमों का परीक्षण करें । इन्हें सुखाकर स्थाई रिकॉर्ड के रूप में रखा जा सकता है ।

Essay # 2. जीवित मिट्‌टी (Living Soil):

यदि हम मिट्‌टी की ऊपरी परत को ध्यान से देखे तो हम पाएंगे कि यह अनेक प्रकार के जीवों का निवास स्थान है । ये जीव आपस में मिट्‌टी के जीवित व मृत पौधों के पदार्थों से तथा स्वयं मिट्‌टी से अंत: क्रिया करते हैं, जिस कारण मिट्‌टी में रहने वाले जीवों को मिट्‌टी का ही एक अभिन्न भाग माना जाता है तथा मिट्‌टी को एक प्रमुख पारितंत्र माना जाता है जो अकार्बनिक, कार्बनिक तथा जीवित संसार के बीच कड़ी के रूप में कार्य करती है ।

यदि हम थोड़ी सी मिट्‌टी लें और ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि यह मुख्यत: खनिज कणों से बनी है । हम पाएंगे कि इसमें थोड़ी मात्रा में कार्बनिक तत्व भी होते हैं जो सड़े हुए पौधों व प्राणियों के अवशेषों से आते हैं । मिट्‌टी में हवा व पानी भी विद्यमान रहते हैं जो कणों के बीच के रिक्त स्थानों में रहते हैं । बहुत कम मात्रा में पानी रासायनिक रूप में अकार्बनिक घटकों के साथ जुड़ा होता है जैसा कि पूर्व में बताया गया है विभिन्न प्रकार के जीवन्त जीव अधिकांश मिट्टियों में पाए जाते हैं । इनमें से कुछ जीवाणु, फफूंद, प्रोटोजोआ, कीट तथा अनके सूक्ष्म प्राणी होते हैं जिनके बारे में हम पूर्व में पढ़ चुके हैं ।

Essay # 3. मिट्‌टी के नमूनों को एकत्र करना (Collection of Soil Sample) :

विभिन्न उद्देश्यों के लिए मिट्‌टी के नमूने एकत्र करने हेतु विभिन्न विधियां अपनाई जाती हैं । इन विधियों में जो एक प्रमुख विविधता होती है, वह है गहराई जहां से मिट्‌टी के नमूने को एकत्र किया जाता है । यहां हमारे कार्य के लिए हम विभिन्न स्थानों से मिट्‌टी के ऊपरी सतह के नमूने एकत्र करेंगे ।

(i) एक छोटे से जमीन के टुकड़े को अंकित कर लें तथा वहां से बड़ा अथवा खुला मलबा हटा लें ।

(ii) पत्तियों कचरे तथा ठोस खाद वाली परत को तब तक खुरच दें जब तक सही मिट्‌टी की कड़क सतह न आ जाए । खुरची हुई सामग्री को एक प्लास्टिक की थैली में रख दें तथा उसमें कोई जीवित जीव को देखने हेतु उसका परीक्षण करें जैसा कि पहले वर्णित किया गया है ।

(iii) 15 से.मी. तक गड्ढे को खोदें तथा खोदी गई मिट्‌टी को अच्छी तरह मिलाकर लगभग एक किलोग्राम मिट्‌टी निकालकर उसे परीक्षण हेतु अलग से रख दें । खोदते तथा मिट्‌टी को मिलाते समय यह नोट करें कि मिट्‌टी खुले कणों वाली है, आसानी से टूटने वाले डलों के रूप में है अथवा कड़े ढेलों के रूप में हैं । यदि मिट्‌टी नम है तो उसके चिपचिपेपन को नोट करें ।

(iv) मिट्‌टी को किसी साफ कठोर सतह पर बिछा दें तथा उस पर एक लोहे के पाइप को घुमाकर उसके डले तोड़ दें । खुली मिट्‌टी को किसी छायादार स्थान पर सूखने हेतु रख दें ।

(v) मिट्‌टी के नमूने को मच्छरदानी के कपड़े के एक टुकड़े से अथवा किसी छननी से जिसके छिद्र 1-2 मि.मी. के हों, छान लें । छननी में बचे हुए बड़े पदार्थ को फेंक दे तथा छने हुए बारीक पदार्थ को और परीक्षण हेतु रख दें ।

(vi) विभिन्न स्थानों जैसे बगीचे, नदी के किनारे, चारागाह आदि से एकत्र किए गए मिट्‌टी के नमूनों को उपरोक्त विधि द्वारा अलग करके छान लें । छनी हुई मिट्‌टी के प्रत्येक नमूने की एक दूसरे से तुलना करें व उनमें पाई जाने वाली विविधता को नोट करें ।

Essay # 4. मिट्‌टी की बनावट  (Formation of Soil):

(i) एक लंबी बरनी या बोतल ले जिसका मुंह कार्क/ढक्कन से कसा हुआ हो तथा जिसकी दीवारें चिकनी हों । 500 मि.मी. की रसोईघर में काम आने वाली बरनी, जैम की बोतल अथवा लंबी शरबत की बोतल से भी काम चल सकता है ।

(ii) बोतल की एक चौड़ाई क्षमता तक उसे उपरोक्त प्रकार से एकत्र की गई मिट्‌टी से भर दें व उसमें शीर्ष तक पानी रख दें ।

(iii) बोतल को बंद कर अच्छे से हिलाकर मिट्‌टी को ऊपर की ओर नीचे कर पानी में परिक्षिप्त होने तक अच्छी तरह हिलाए । कुछ घंटों के लिए बोतल को स्तरीय सतह पर रखे रहने दें ।

(iv) पानी की सतह में बैठी मिट्‌टी को ध्यान से देखें । आप देखेंगे मिट्‌टी में विभिन्न परतें बन गई हैं । कुछ बारीक मिटटी के तत्व पानी में तैर रहे होंगे । कुछ तत्व पानी की सतह पर तैर रहे होंगे ।

मिटटी के कणों का आकार तथा प्रत्येक परत का रंग भिन्न होगा । अलग-अलग नमूनों में जमी हुई मिटटी की परत की चौड़ाई भिन्न होगी जो उस मिटटी की बनावट को दर्शाती है ।

यह अवसादन की प्रक्रिया मिट्‌टी के मूल घटकों को प्रभावी रूप से अलग कर देती है तथा हमें किसी नमूने में उसके सापेक्ष अनुपात का पता लग जाता है । इन मूल घटकों को उनके कणों के आकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है ।

Essay # 5. मिट्‌टी के खनिज घटक (Mineral Ingredients of Soil):

चिकनी मिट्‌टी, पंकगाद (सिल्ट) व रेत मिलकर मिट्‌टी के अकार्बनिक अथवा खनिज भाग बनाते हैं । ये सभी मिट्‌टी में मूल चट्टान के क्रमिक अवक्रमण के कारण आते हैं । ये अपने कणों के आकार तथा कुछ अन्य भौतिक व रासायनिक गुणों के कारण एक दूसरे से भिन्न होते हैं ।

अपने बड़े आकार के कारण रेत के कण नग्न आँख से देखे जा सकते हैं । ये रेत के कण वास्तव में चट्टान के टुकड़े होते हैं । इसलिए जब इन्हें हम उंगलियों से रगड़ते हैं तो खुरदरे लगते हैं । रेत के कण एक दूसरे से चिपकते नहीं हैं चाहे वह गीले ही क्यों न हों ।

चिकनी मिट्‌टी तथा पंकगाद के कण इतने सूक्ष्म होते हैं जिन्हें पृथक रूप में नग्न आँख से नहीं देखा जा सकता । सूखी हुई चिकनी मिट्‌टी तथा पंकगाद का पाउडर उंगलियों में लेने से चिकना लगता है । गीला होने पर केवल चिकनी मिट्‌टी (क्ले) ही चिपचिपी लगती है ।

चिकनी मिट्‌टी जिसके कण सबसे अधिक सूक्ष्म होते हैं, पानी मिलाने पर चिपचिपी हो जाती है । चिकनी मिट्‌टी को अनेक प्रकार के आकार दिए जा सकते हैं तथा सूखने पर यह कठोर हो जाती है । चिकनी मिट्‌टी के सूक्ष्मतम कण कोलॉइडी निलम्बन बनाते हैं ।

वर्षा ऋतु में पानी पारभासक से लेकर अपारदर्शी तथा, हल्का पीला या दूधिया लगता है । यह चिकनी मिट्‌टी के कारण ही होता है । इस गंदले पानी को कुछ स्कन्दक (कोऐगुलंट) पदार्थ जैसे फिटकरी अथवा कुछ वनस्पति पदार्थ जैसे मोरिंग के बीज मिलाकर साफ किया जा सकता है ।

Essay # 6. मिट्‌टी की बनावट एवं छिद्रिलता (पोरोसिटी) (Texture and Porosity of Soil):

मिट्‌टी की संरचना (Texture) मुख्यत: उसके अंदर के विभिन्न आकार के खनिज घटकी के अनुपात को परिलक्षित करती है । किन्तु मिट्‌टी में विभिन्न मात्रा में कार्बनिक पदार्थ भी होते हैं । इन कार्बनिक पदार्थों का अनुपात प्राय: कम ही रहता है- लगभग 5% से भी कम ।

किन्तु यह मिट्‌टी के अन्दर के कणों को प्रभावित करता है कि आपस में वह किस प्रकार एकत्र होंगें तथा एक दूसरे से कैसे जुड़े । ये मिट्टी के कणों का आकार व बंधन तथा उनके बीच के स्थान को निर्धारित करते हैं । दूसरे शब्दों में खनिज कण तथा कार्बनिक पदार्थ दोनों मिलकर मिटटी की बनावट निर्धारित करते हैं ।

मिट्‌टी के कणों के बीच का अंतराल मिट्‌टी की बनावट का महत्वपूर्ण भाग होता हैं । खुली हुई ऊपरी मिट्‌टी में मिट्‌टी के आकार का आधा स्थान या मिट्‌टी का द्रव्यमान का 25% मिट्‌टी की संरचना पानी से तथा दूसरा आधा भाग वायु से भरा होता है । इस पानी को प्राय मिट्‌टी का घोल कहते हैं क्योंकि इसमें विभिन्न प्रकार के लवण घुले होते हैं ।

इस प्रकार मिट्‌टी की समग्र बनावट हो सकती है- खनिज ढांचा (50-60%) कार्बनिक पदार्थ (10% तक) पानी (25-35%) तथा वायु (15-25%) । यह पौधों के विकास के लिए आदर्श स्थिति होती है क्योंकि जड़ी को आवश्यक सभी मूल पदार्थ मिट्‌टी से ही प्राप्त हो जाते हैं ।

किसी भी मिट्‌टी में पानी की मात्रा बाहरी आपूर्ति के अनुसार भिन्न हो सकती है । बाद के समय मिट्‌टी का संपूर्ण रन्ध्र-स्थान पानी द्वारा भर दिया जाता है तथा सश्वों में केवल वायु ही रहती है । दोनों ही प्रकार की स्थिति पौधों के विकास के लिए अच्छी नहीं रहती ।

मिट्‌टी में कितनी वायु है ?

(1) 500 मि.ली. क्षमता की चौड़े मुंह की एक प्लास्टिक की बरनी लें । उसमें एक कप पानी डालकर स्तर पर निशान लगा दें । एक कप और पानी डालकर दूसरा निशान लगा लें । बरनी को रिक्त कर सुखा लें ।

(2) बरनी में एक कप नमूने की मिट्‌टी डाल दीजिए व उसे थोड़ा हिलाएं जिससे मिट्‌टी समतल हो जाए उसे पहले निशान तक आना चाहिए । उसमें एक कप पानी मिलाए तथा एक लकड़ी से इसे हिला दें । पानी में हवा के बुलबुले उठते हुए दिखाई देंगे ।

(3) जब मिट्टी पानी में पूर्णत: मिल जाए तो पानी के स्तर को नोट कर लें । दो कप पानी के निशान से यह नया निशान कितना नीचे हैं, इसे नोट करें । यह अंतर मिट्‌टी के नमूने के अन्दर की स्थानापन्न होने वाली वायु की मात्रा को दर्शाता है । रेतीली मिट्टी तथा चिकनी मिट्टी की वायु की मात्रा की तुलना करें । यदि इस कार्य हेतु हम श्रेणीबद्ध मापन सिलेण्डर का उपयोग करें तो हम वायु की सही-सही मात्रा का पता लगा सकते हैं ।

मिट्‌टी में पानी होता है :

किसी पुराने टीन के डिब्बे में कुछ मिट्‌टी रखें तथा उसे किसी कांच की प्लेटसे पूर्णत ढक दें । टीन को हल्का सा गरम करें । मिट्‌टी से निकली हुई पानी की भाप कांच के ढक्कन पर जमी हुई दिख जाएगी ।

मिट्‌टी का गतिशील पानी:

किसी मिट्‌टी के अंदर पानी की मात्रा उसके परिवेश की स्थितियों के अनुसार बदल सकती है । मिट्‌टी के कणों के बीच से पानी के गुजरने की गति पारगम्यता (परमिअबिलिटी) तथा पानी की अधिकाधिक मात्रा जो मिट्‌टी अपने अंदर संचित रख सकती है (पानी रखने की क्षमता), ये मिट्‌टी के दो महत्वपूर्ण गुण हैं । मिट्‌टी के ये दोनों गुण मिट्‌टी के कणों के आकार व उसके रन्ध्र स्थान द्वारा निर्धारित होते हैं ।

Essay # 7. मिट्‌टी की उर्वरता (Soil Fertility) :

मिट्‌टी की पौधों के विकास को भरण-पोषण देने की क्षमता सबसे अधिक महत्वपर्ण भूमिका होती है । मिट्‌टी का यह गुण-मिट्‌टी की उर्वरता और उसमें पाए जाने वाले कार्बनिक पदार्थों द्वारा नियंत्रित होता है । मिट्‌टी में विद्यमान घुलनशील खनिज लवण भी कुछ सीमा तक मिट्‌टी की उर्वरा शक्ति में योगदान देते हैं ।

जैसा कि हमने ऊपर देखा मिट्‌टी के कार्बनिक घटक पानी व वायु के साथ उसकी अंत:क्रियाओं को निर्धारित करते हैं । मिट्‌टी की संरचना परिवर्तन कर ये कार्बनिक पदार्थ मिट्‌टी को विभिन्न प्रकार के पौधों व फसलों हेतु उपयुक्त बनाते हैं मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ पौधों के विकास के लिए आवश्यक पौष्टिक तत्वों को प्रत्यक्ष रूप से प्रदान कर उनकी सहायता करते है ।

इस प्रकार अपनी मृत्यु के बाद भी जीव, मिट्‌टी में नए जीवन को भरण-पोषण प्रदान करने की क्षमता में योगदान देते हैं । इसी कड़ी की भूमिका में मिट्‌टी जीवित संसार के सबसे महत्वपूर्ण घटक के रूप में स्वयं को सिद्ध करती है ।

Essay # 8. मिट्‌टी के प्रकार (Types of Soil) :

एक गड्ढा खोदते हुए आपने देखा होगा कि विभिन्न गहराइयों की मिट्‌टी दिखने में तथा स्पर्श करने से भिन्न लगती है । हमें ऐसा लगता है कि विभिन्न परतें जिनमें प्रत्येक का रंग भिन्न होता है, गड्ढे की दीवारों पर एक के ऊपर एक रखी गई हैं जो एक दूसरे से भौतिक-रासायनिक तथा जैविक लक्षणों में भिन्न इन परतों की होती हैं, जिन्हें मृदा वैज्ञानिक संस्तर कहते हैं तथा वे उन्हें मानक पदनाम भी देते हैं । इन सभी संस्तरों को मिलाकर वे इसे मिटटी का वर्णन (सॉइल प्रोफाइल) कहते हैं ।

मिट्‌टी की प्रत्येक परत यानी संस्तरों की मोटाई व स्वरूप यानी साइल प्रोफाइल, प्रत्येक स्थान पर भिन्न-भिन्न होता है । फिर भी एक सामान्य चित्र जो भूमि की संरचना को समझने में उपयोगी होगा, खींचा जा सकता है ।

इस सामान्य चित्र में जो नीचे दर्शाया गया है मिट्‌टी वर्णन के चार विशिष्ट क्षेत्र होते हैं:

संस्तर A- ऊपरी सतह,

संस्तर B- अवमृदा (सब सॉइल),

संस्तर C- आंशिक रूप से अवक्रमित चट्टानें तथा

संस्तर D- अपरिवर्तित मूल चट्टान ।

essay on soil conservation in hindi

भारत में मृदा का वर्गीकरण (Soil Classification in India)

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Table of contents

पिछले कुछ दशकों में भारत की मृदा के वर्गीकरण के कई प्रयास किए गए। भारतीय मृदाओं का प्रथम वैज्ञानिक वर्गीकरण वोयलकर (1893) और लीदर (1898) ने किया था। इनके अनुसार भारतीय मृदाओं को चार वर्गों में बांटा गया था: (i) जलोढ़, (ii) रेगड़ (काली मिट्टी), (iii) लाल मृदा, और (iv) लैटेराइट (मखरला) मृदा ।

अखिल भारतीय मृदा एवं भू-उपयोग सर्वेक्षण संगठन द्वारा भी 1956 में भारतीय मृदाओं को वर्गीकृत करने का प्रयास किया गया। अगले वर्ष 1957 में राष्ट्रीय एटलस एवं थिमेटिक संगठन (NATMO) द्वारा भारत के मृदा मानचित्र को प्रकाशित किया, जिसमें भारतीय मृदाओं को 6 प्रमुख समूहों और 11 उप-समूहों में वर्गीकृत किया गया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) के द्वारा भी वर्ष 1963 में भारत का मृदा मानचित्र प्रकाशित किया (एस.पी. राय चौधरी के पर्यवेक्षण में) जिसमें भारत की मृदा को 7 समूहों में विभाजित किया गया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के हाल के वर्गीकरण में भारत की मृदाओं को निम्न 10 मृदा समूहों में विभाजित किया गया है:

1. जलोढ़ मृदा

2. रेगड़ (काली मिट्टी) मृदा

3. लाल और पीली मृदाएँ

4. लैटेराइट मृदा

5. मरुस्थलीय या शुष्क मृदाएँ

6. पर्वतीय मृदा

7. लवण मृदाएँ तथा क्षारीय मृदाएँ

8. पीटमय मृदाएँ

9. भूसर एवं भूरी मृदाएं

10. भूसर एवं भूरी मृदाएं

11. अन्य मृदाएं

जलोढ़ मृदाएँ (Alluvial Soils)

  • प्रमुख रूप से जलोढ़ मिट्टियों का निर्माण नदियों द्वारा बहाकर लाए हुए अपरदित पदार्थों के जमा होने से होता है। ये मृदाएँ समुद्रों की जलीय प्रक्रिया द्वारा भी निक्षेपित होती हैं। 

विस्तार 

  • जलोढ़ मिट्टियाँ नदी घाटियों, डेल्टाई प्रदेशों और बाढ़ के मैदानों में पाई जाती हैं। उत्तरी भारत का विशाल मैदान इन्हीं मिट्टियों से बना हुआ है। 
  • महानदी, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी इत्यादि नदियों के डेल्टाई भागों में भी यही मिट्टियाँ पाई जाती हैं। इसी कारण इन्हें डेल्टाई मिट्टी (Deltaic Soil) भी कहा जाता है।
  • इसके अतिरिक्त ये मिट्टियाँ असम घाटी, गुजरात तथा पश्चिमी व पूर्वी तटीय मैदानों में भी पाई जाती हैं। 
  • भारत में जलोढ़ मृदा 142.50 मिलियन वर्ग कि.मी. क्षेत्र को घेरे है, जो भारत की सभी मृदाओं के क्षेत्रफल का लगभग 43.4 प्रतिशत है। 
  • इन्हें काँप की मिट्टियाँ अथवा कछारी मिट्टियाँ भी कहा जाता है। 
  • ये मिट्टियाँ हल्के भूरे व पीले रंग की होती हैं।
  • मुलायम होने के कारण इन मिट्टियों में कुएँ, नलकूप व नहरें खोदना आसान और कम खर्चीला होता है। इसलिए जलोढ़ मिट्टियों के क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाओं को आसानी से विकसित किया जा सकता है।
  • जलोढ़ मिट्टियों में गहन कृषि (Intensive Farming) की जाती है। चावल, गेहूँ, गन्ना, कपास, तिलहन, दालें, तंबाकू व हरी सब्जियाँ इन मिट्टियों में बहुतायत से उगाई जाती हैं। 
  • जलोढ़ मिट्टियों में पोटाश और चूना पर्याप्त मात्रा में मिलता है, जबकि नाइट्रोजन, फास्फोरस, वनस्पति अंश (ह्यूमस) आदि की कमी होती है। 

संरचना और उपजाऊपन के आधार पर जलोढ़ मिट्टियों के तीन उप-विभाग हैं-

(i) खादर मिट्टियाँ

नदी तट के समीप नवीन कछारी मिट्टियों से बने निचले प्रदेश जहां हर साल बाढ़ आती है, को खादर कहते हैं। नदियों की बाढ़ के कारण यहाँ हर वर्ष जलोढ़ की नई परत बिछ जाने के कारण ये मिट्टियाँ अधिक उपजाऊ होती हैं। इसे ‘बेट’ भूमि भी कहा जाता है।

(ii) बांगर मिट्टियाँ

पुराने जलोढ़ निक्षेप से बने ऊँचे प्रदेश जहाँ बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता, को बांगर कहते हैं। बांगर में मृतिका का अंश अधिक पाया जाता है। इसमें कैल्शियम संग्रथनों अर्थात् कंकड़ों की भरमार होती है। इसे ‘धाया’ भी कहते हैं।

(iii)नवीनतम जलोढ़ मिट्टियाँ

ये नदियों के डेल्टाओं में पाई जाने वाली दलदली, नमकीन और अत्यंत उपजाऊ मिट्टियाँ होती हैं। इनके कण अत्यंत महीन होते हैं। इनमें ह्यूमस, पोटाश, चूना, मैग्नीशियम व फॉस्फोरस अधिक मात्रा में मिलते हैं।

Soil Map of India

Soil Map of India

काली मृदाएँ (Black Soils)

  • आधुनिक मान्यता के अनुसार, काली मृदाएँ ज्वालामुखी विस्फोट से बनी दरारों से निकले पैठिक लावा (Basic Lava) के जमा होने से बनी हैं।
  • काली मृदा का विस्तार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात तथा तमिलनाडु के लगभग 5 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में हैं। 
  • जलोढ़ मिट्टियों के बाद देश में काली मिट्टियों का विस्तार सबसे बड़े क्षेत्र पर है।
  • रंग की गहराई के आधार पर काली मिट्टियों के तीन प्रकार होते हैं- (i) छिछली काली मिट्टियाँ, (ii) मध्यम काली मिट्टियाँ तथा (iii) गहरी काली मिट्टियाँ
  • ये अपने ही स्थान पर बनकर पड़ी रहने वाली स्थायी (In Situ) मिट्टियाँ हैं ।
  • इन मिट्टियों में चूना, लोहा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, कार्बोनेट, एल्यूमीनियम व पोटाश ( LIMCAP – Lime, Iron, Magnesium, Calcium Carbonate, Aluminium and Potash) अधिक पाया जाता है, परंतु इसमें जीवित पदार्थों, फॉस्फोरस और नाइट्रोजन की मात्रा कम पाई जाती है।
  • लोहे के अंश की मात्रा अधिक होने के कारण इन मिट्टियों का रंग काला होता है।
  • काली मिट्टियों में कणों की बनावट घनी और महीन होती है जिससे इसमें नमी धारण करने की पर्याप्त क्षमता होती है। इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है।
  • जल के अधिक देर तक ठहर सकने के गुण के कारण ये मिट्टियाँ शुष्क कृषि (Dry Farming) के लिए श्रेष्ठ हैं।
  • स्वभाव से काली मिट्टियाँ चिकनी (Clayey) होती हैं।
  • इन मिट्टियों का प्रमुख दोष यह है कि ग्रीष्म ऋतु में सूख जाने पर इसकी ऊपरी परत में दरारें पड़ जाती हैं। दरारें काली मिट्टियों में वायु-संचरण (Aeration) अथवा वातन क्रिया में सहायता करती हैं। वर्षा ऋतु में ये मिट्टियाँ चिपचिपी (Sticky) हो जाती हैं। दोनों दशाओं में इसमें हल चलाना कठिन हो जाता है । अतः पहली बारिश के बाद इन मिट्टियों की जुताई जरूरी है।
  • कपास के उत्पादन के लिए ये मिट्टियाँ अत्यंत उपयोगी हैं। अतः इन्हें काली कपास वाली (Black Cotton Soil) मिट्टियाँ भी कहते हैं। 
  • गन्ना, तंबाकू, गेहूँ व तिलहन के लिए भी ये मिट्टियाँ श्रेष्ठ सिद्ध हुई हैं।
  • कहीं-कहीं काली मिट्टियों को रेगड़ (Regur) भी कहते हैं।

लाल और पीली मृदाएँ (Red and Yellow Soils)

निर्माण .

  • लाल और पीली मृदाएँ अपक्षय के कारण प्राचीन रवेदार और रूपांतरित चट्टानों के टूटने-फूटने से बनती हैं। ये मृदाएँ अपने ही स्थान पर बनने वाली स्थायी (In Situ) मिट्टियां हैं।
  • ये मृदाएँ भारत में लगभग 2 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में विस्तृत है।
  • लाल और पीली मृदाएँ प्रायद्वीपीय पठार के बाहरी क्षेत्रों में विस्तृत हैं जिसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना छत्तीसगढ़, दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र, ओडिशा और छोटा नागपुर पठार कुछ हिस्से शामिल हैं। 
  • लोहे के यौगिकों की उपस्थिति के कारण इन मिट्टियों का रंग लाल होता है।
  • कहीं-कहीं इन मिट्टियों का रंग पीला, भूरा, चॉकलेटी और काला भी होता है। 
  • जलयोजित होने के कारण इन मिट्टियों का रंग पीला दिखाई देता है।
  • लाल और पीली मिट्टियों में लोहा, चूने और एल्युमीनियम की प्रधानता होती है, परंतु नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और जैव पदार्थों की कमी पाई जाती है।
  • ये अपेक्षाकृत कम उपजाऊ मिट्टियाँ होती हैं जो शुष्क कृषि के लिए अधिक अनुकूल हैं।उर्वरकों का प्रयोग करने के बाद इन मिट्टियों में चावल, गेहूँ, गन्ना, कपास व दालें आदि उगाई जा सकती हैं। 

लैटेराइट मृदाएँ (Laterite Soils)

निर्माण  .

  • लैटेराइट मृदाओं का निर्माण मानसून जलवायु की अधिक वर्षा और ऊँचे तापमान की दशाओं में होता है। उष्ण-आर्द्र प्रदेशों में आर्द्रता और शुष्कता के क्रमिक परिवर्तन के कारण इन मिट्टियों की ऊपरी परत से चूना तथा सिलिका वर्षा के जल के साथ घुलकर निचली परत में पहुँच जाते हैं और लोहे तथा एल्युमीनियम के कण ऊपर रह जाते हैं। इस कुदरती प्रक्रिया को निक्षालन (Leaching) कहा जाता है।
  • लैटेराइट मृदाएँ लगभग 1.2 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में फैली हुई हैं।
  • भारत में लैटेराइट मिट्टियाँ पश्चिमी घाट, नागपुर पठार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व असम के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती हैं। 

विशेषताएँ 

  • लैटेराइट मृदाएँ ईंट के समान लाल रंग की होती हैं।
  • ये मिट्टियाँ अम्लीय (Acidic) प्रकृति की हैं जिनमें नाइट्रोजन, चूना, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम तथा जैव पदार्थ की मात्रा कम होती है। जिस कारण ये मिट्टियाँ कम उपजाऊ हैं।
  • यद्यपि लैटेराइट मिट्टियाँ कृषि के लिए उपयुक्त नहीं होतीं फिर भी चरागाहों व झाड़ीनुमा वनों के लिए अनुकूल मानी जाती हैं।
  • उर्वरकों के प्रयोग के साथ इन मिट्टियों में कॉफी, रबड़ व काजू जैसी फसलें उगाई जा सकती हैं।
  • भवन-निर्माण (ईंट बनाने) के लिए इन मिट्टियों का खूब प्रयोग किया जाता है।

मरुस्थलीय या शुष्क मृदाएँ (Arid Soils)

  • शुष्क और उष्ण जलवायु में चट्टानों के भौतिक अपक्षय (Mechanical Weathering) के फलस्वरूप रेत का निर्माण होता है। पवनों द्वारा इस रेत के परिवहन तथा अन्यत्र निक्षेपण के उपरांत इन मिट्टियों का जन्म होता है।
  • शुष्क मृदाएँ 1.42 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में फैली हुई हैं।
  • ये मिट्टियाँ 50 सें०मी० से कम वार्षिक वर्षा वाले शुष्क प्रदेशों, विशेष रूप से राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिण-पश्चिमी पंजाब व दक्षिणी हरियाणा में मिलती है।
  • इन्हें बलुई अथवा मरुस्थलीय मृदाएँ भी कहा जाता है।
  • इन मिट्टियों में खनिज लवण (Mineral Salts) अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।
  • पानी और प्राकृतिक वनस्पति की कमी तथा तीव्र वाष्पीकरण के कारण इन मिट्टियों में नाइट्रोजन व जैव पदार्थ की भारी कमी होती है।
  • वर्षा की कमी के कारण घुलनशील लवणों का निक्षालन नहीं हो पाता। अतः ये मिट्टियाँ स्वभाव से क्षारीय (Alkaline) होती हैं ।
  • सिंचाई की सुविधा होने पर ये मिट्टियाँ उपजाऊ बन जाती हैं और तब इसमें गेहूँ, चना, ज्वार, बाजरा तथा सब्जियाँ आदि पैदा की जाती हैं। 
  • इंदिरा गांधी नहर परियोजना ने सिद्ध कर दिया है कि सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर राजस्थान के मरुस्थल में लहलहाती फसलें उगाई जा सकती हैं।
  • इन मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है।

पर्वतीय मृदाएँ (Forest Soils)

  • पर्वतीय मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है। इन मिट्टियों की रचना हिम, वर्षा तथा क्रमिक तापांतर से हुए चट्टानों के यांत्रिक (भौतिक) अपक्षय से होती है। 
  • चट्टानों से प्राप्त यह अपक्षयित सामग्री अपने स्थान पर बनी नहीं रह पाती तथा गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव तथा हिम और जल के साथ ढाल के सहारे बह जाती हैं। अत: इन मिट्टियों के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती। 
  • भारत में इन मिट्टियों का विस्तार 2.85 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में मिलता है।
  • ये मिट्टियाँ जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, असम, उत्तराखंड तथा अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय भागों के वनाच्छादित क्षेत्रों में पाई जाती हैं। 
  • ये खुरदरी (Coarse) मिट्टियाँ हैं जिनमें कंकड़ व चट्टानी टुकड़ों की प्रचुरता होती है।
  • अपेक्षाकृत बड़े आकार के कणों तथा चीका की अनुपस्थिति के कारण वन मिट्टियों में जल धारण करने की क्षमता नहीं होती। अतः ये मिट्टियाँ वृक्षीय फसलों (Tree Crops) तथा ऐसी फसलों के लिए उपयुक्त होती हैं जिन्हें पारगम्य (permeable) मिट्टी की जरूरत होती है।
  • इन मिट्टियों में लोहे के अंश व जैव पदार्थ तो अधिक होते हैं किंतु चूने व पोटाश की मात्रा कम होती है ।
  • पर्वतीय ढलानों पर इन मिट्टियों में चाय, कॉफी, सेब, आडू, चेरी, अखरोट तथा चिकित्सा उपयोगी पौधे उगाए जाते हैं। 

लवण मृदाएँ (Saline Soils) तथा क्षारीय मृदाएँ (Alkaline Soils)

  • जब किसी मिट्टी विशेष में लवणों और क्षारों का अंश अधिक हो जाता है तो ऐसी मिट्टी को लवणीय तथा क्षारीय मिट्टी कहा जाता है। 
  • इन मिट्टियों का निर्माण जलाक्रांति जल (Water logging ) की समस्या से ग्रस्त कुप्रवाहित (IIldrained) भूमि पर होता है। 
  • नहरों द्वारा सिंचित तथा उच्च भूमिगत स्तर वाले इलाकों में जब वाष्पन होता है तो केशिका क्रिया (Capillary Action) द्वारा भूमिगत लवण नीचे से ऊपर धरातल पर आ जाते हैं और मिट्टी को अनुपजाऊ बना देते हैं। 
  • समुद्र-तटीय प्रदेशों में ज्वारीय जल के इकट्ठा होने से भी तटीय मिट्टियाँ लवणीय हो जाती हैं ।
  • इस प्रकार की मिट्टियाँ शुष्क प्रदेशों में विशेषतः पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मिलती हैं। गुजरात में खंभात की खाड़ी के इर्द-गिर्द भी समुद्र के नमकीन पानी के इकट्ठा होने के कारण ऐसी मिट्टियाँ मिलती हैं।
  • इन मिट्टियों को थूर, ऊसर, रेह, कल्लर, शंकड़ और चोपन आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। 
  • ये अनुपजाऊ मिट्टियाँ हैं लेकिन जैव उर्वरकों का प्रयोग करके इस पर खेती की जा सकती है ।

पीटमय मृदाएँ (Peaty Soils)

  • इन मिट्टियों का निर्माण अ धिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों अथवा समुद्र-तटीय क्षेत्रों में जल की निरंतर उपस्थिति के कारण होता है।
  • ये मिट्टियाँ पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश व तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों तथा उत्तर प्रदेश की तराई पट्टी में पाई जाती हैं।
  • दलदली मिट्टियों में लोहांश तथा जीवांश की मात्रा अधिक पाई जाती है।
  • पटसन की खेती के लिए ये उपयोगी मिट्टियाँ हैं। 
  • वर्षा ऋतु में अधिकांश पीट मिट्टियाँ जल में डूब जाती हैं। वर्षा ऋतु के बाद इन पर चावल की फसल बोई जाती है।

भूसर एवं भूरी मृदाएं (Grey and Brown Soils)

  • भूसर एवं भूरी मृदाओं का निर्माण ग्रेनाइट, नाइस और क्वार्ट्जाइट के अपक्षय द्वारा होता है। 
  • ये मृदाएं राजस्थान एवं गुजरात में पायी जाती हैं।
  • ये ढीली और भुरभुरी (friable) मृदाएं हैं। 
  • इनमें मौजूद लोहे के आक्साइड (हेमेटाइट और लिमोनाइट) इनको लाल, काले या फिर भूरे रंगों की भिन्नता प्रदान करता हैं। 

उपपर्वतीय मृदाएं (Submontane Soils)

  • उपपर्वतीय मृदाओं का निर्माण शिवालिक एवं लघु हिमालय से प्राप्त अपरदित पदार्थों के निक्षेपों से हुआ है।
  • ये मृदाएं जम्मू एवं कश्मीर से लेकर आसाम तक तराई प्रदेशों के उपपर्वतीय भागों में एक संकीर्ण पट्टी के रूप में पायी जाती हैं। 
  • उपपर्वतीय मृदाएं  उपजाऊ है तथा उन्नत जंगलों के विकास के अनुकूल हैं। 
  • कृषि कार्यों के लिए इन क्षेत्रों में की गई जंगलों की कटाई ने यहां मृदा अपरदन के संकट को जन्म दिया है।

अन्य मृदाएं

करेवा मृदाएं (karewa soils).

  • करेवा मृदाएं सरोवरीय निक्षेपों से बनी हैं। इन मृदाओं का निर्माण महीन गाद, दोमट, बालू एवं कंकड़ों से हुआ है। इनमें स्तनधारियों के जीवाश्म और पीट विद्यमान हैं।
  • करेवा मृदाएं कश्मीर घाटी तथा जम्मू मंडल के ‘डोडा जिले की भद्रवाह घाटी में पायी जाती हैं। 
  • ये मृदाएं चपटी सतहों वाले टीलों (mounds) के रूप में कश्मीर घाटी की सीमाओं पर फैली हैं। 
  • भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार पूरी कश्मीर घाटी अभिनूतन काल (Pleistocene Period) में जल के नीचे थी।
  • कुछ समय बाद अंतर्जात बलों द्वारा बारामुला खड्ड (gorge) का निर्माण हुआ तथा इस झील का जल बारामुला खड्ड द्वारा बाहर निकल गया। 
  • इस झील या सरोवर में निक्षेपित पदार्थों से ही करेवा की रचना हुई।
  • झील या सरोवर की वर्तमान स्थिति के निर्माण में झेलम नदी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 
  • करेवा मृदाओं में मुख्यतया केसर, बादाम, अखरोट, सेब और फलों, की खेती की जाती है। 
  • केसर की खेती वहां के किसानों को अच्छी आय अर्जित कराती है। पालमपुर, पुलवामा और कुलगाम की करेवा मृदाएं उच्च गुणवत्ता वाले केसर की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं।

हिम क्षेत्र (Snowfields)

  • भारत की लगभग 4 मिलियन हैक्टेयर भूमि बर्फ से ढकी है जिन्हें हिमक्षेत्र के नाम से जाना जाता है। वृहत् हिमालय की ऊंची चोटियां, काराकोरम, लद्दाख और जास्कर (जास्कर) इसके मूल क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों की मृदाएं अप्रौढ़ हैं तथा यहाँ साधारणतया मृदा अपरदन नहीं हुआ है। ये मृदाएं वर्ष भर जमी रहती हैं तथा ये कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त हैं।

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मृदा (भाग-1)

  • 29 Oct 2020
  • सामान्य अध्ययन-I
  • मृदा कई ठोस, तरल और गैसीय पदार्थों का मिश्रण है जो भूपर्पटी के सबसे ऊपरी स्तर में पाई जाती है।
  • जैविक, भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं के एक लंबी अवधि तक बने रहने से मृदा का निर्माण होता है।
  • भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती है फलस्वरूप फसलों, घासों तथा पेड़-पौधों में भी भिन्नता पाई जाती है। 
  • जिस मृदा में चूने की मात्रा कम होती है वह अम्लीय मृदा होती है तथा जिसमें चूने की अधिक मात्रा होती है वह क्षारीय मृदा होती है। 
  • प्रत्येक वर्ष 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाया जाता है।

मृदा की संरचना और संघटन: 

  • मृदा के संघटन का संबंध विभिन्न प्रकार के अवसादों के अनुपात से है, जबकि अवसादों की व्यवस्था का संबंध मृदा की संरचना से होता है।
  • जब मृदा के कण आपस में संघटित होकर पिंड का रूप लेते हैं तो इन संघटित पिंडों को मृदा की संरचना कहा जाता है।
  • मृदा की संरचना एवं गठनता इसकी सरंध्रता एवं पारगम्यता को निर्धारित करते हैं।
  • बारीक कणों से निर्मित चीका युक्त मृदा में छिद्रों का आकार छोटा एवं संख्या अधिक होती है इसलिये जल को अवशोषित करने की क्षमता अधिक हो जाती है जिससे चीका युक्त मृदा आर्द्र होने पर चिपचिपी हो जाती है और शुष्क होने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं।
  • वहीं बड़े आकार के कणों से निर्मित रेतीली मृदा में जल अवशोषण की क्षमता कम होती है और पारगम्यता अधिक हो जाती है जिस कारण जल का रिसाव ऊपर की परतों से नीचे की परतों में होता है यही कारण है कि रेतीली मृदा शुष्क होती है।
  • दोमट मृदा में रेत और चीका का अनुपात लगभग समान होता है इसलिये इसकी पारगम्यता में एक प्रकार का संतुलन होता है फलतः यह कृषि के लिये उपजाऊ मृदा होती है।  

मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक:

Factors-Affecting-Soil-Formation

  • मृदा के नीचे स्थित चट्टानी संस्तर से मृदा का निर्माण होता है। यह आवश्यक नहीं है कि किसी क्षेत्र की मृदा उसी चट्टानी संस्तर पर स्थित हो जिससे वह बनी हो।
  • ग्रेनाइट चट्टान के टूटने से बालू मिश्रित चिकनी मृदा का, जबकि बेसाल्ट चट्टान के अपक्षय से महीन कणों की उपजाऊ काली मृदा का निर्माण होता है।  
  • शेल जैसी चट्टानें अच्छी मृदा उत्पादक होती हैं क्योंकि ये चट्टानें शीघ्र ही अपक्षयित हो जाती हैं, जबकि चुना पत्थर जैसी चट्टानें निम्न कोटि की मृदा उत्पादक होती हैं।
  • एक ही जलवायु क्षेत्र में दो भिन्न प्रकार के जनक पदार्थ एक ही प्रकार की मृदा का निर्माण कर सकते हैं तथा एक ही तरह के जनक पदार्थ दो भिन्न जलवायु क्षेत्र में दो भिन्न प्रकार की मृदा का निर्माण कर सकते हैं।
  • मृदा का रंग जीवाश्म की मात्रा पर निर्भर करता है।
  • आर्द्र जलवायु प्रदेशों में वर्षा की मात्रा वास्पीकरण से अधिक होने के कारण वहाँ क्षारीय तत्त्व निक्षालन के द्वारा मृदा के नीचे की परतों में चले जाते हैं इसलिये आर्द्र जलवायु प्रदेशों की मृदा क्षारीय नहीं होती।
  • इसके विपरीत अर्द्ध-शुष्क एवं शुष्क जलवायु प्रदेशों की मृदा क्षारीय होती है क्योंकि यहाँ वाष्पीकरण की मात्रा वर्षा की मात्रा से अधिक होने के कारण केशिकात्त्व क्रिया द्वारा जल के साथ घुले हुए क्षारीय तत्त्व मृदा की निचली सतह से ऊपर की सतह में आ जाते हैं।
  • निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर जाने पर मृदा की अम्लीयता में वृद्धि होती जाती है।
  • उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों की ओर जाने पर वनस्पति की सघनता में वृद्धि के बावजूद ह्यूमस की मात्रा में पहले वृद्धि फिर कमी होती जाती है।
  • उच्च अक्षांशों में तापमान कम होने के कारण कार्बनिक पदार्थों का विघटन नहीं हो पाता, जबकि निम्न अक्षांशीय प्रदेशों में सूक्ष्म जीवों के द्वारा पत्तियों का उपभोग किये जाने के साथ निक्षालन के द्वारा ह्यूमस जल के साथ घुलकर मृदा की निचली सतहों में चले जाते हैं।
  • उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु प्रदेशों में तापमान अधिक होने के कारण जीवाणु अधिक सक्रिय होते हैं जो मृदा से ह्यूमस की मात्रा को ग्रहण कर लेते हैं, फलतः इन प्रदेशों में ह्यूमस की मात्रा अपेक्षाकृत कम हो जाती है।
  • इसके विपरीत ठंडे प्रदेशों में जीवाणु कम सक्रिय रहते हैं जिसके कारण इन प्रदेशों की मृदा में ह्यूमस की क्षति कम होती है।
  • तीव्र ढाल वाली चट्टानी सतह पर जल बहाव अधिक तीव्र होने के कारण मृदा निर्माणकारी पदार्थों का जमाव कम हो जाता है फलतः यहाँ मृदा की बहुत पतली परत का ही निर्माण हो पाता है जिसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं।
  • सपाट एवं समतल धरातल पर आदर्श अपवाह होता है एवं न्यूनतम अपरदन होता है अतः पूर्णतया अपक्षालित तथा गहरी मृदाओं का निर्माण होता है, जबकि चौरस परंतु निचले धरातल पर जल भराव होने एवं अच्छे अपवाह के अभाव में नीली भूरी, तर एवं चिपकने वाली मृदा की मोटी परत का निर्माण होता है।
  • ढाल की प्रवणता, लंबाई एवं ढाल पक्ष आधी किसी भी स्थान में मृदाओं के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं।

essay on soil conservation in hindi

दा इंडियन वायर

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण पर निबंध

essay on soil conservation in hindi

By विकास सिंह

Essay on conservation of natural resources in hindi

प्राकृतिक संसाधन वे संसाधन हैं जिन्हें प्रकृति द्वारा हमें उपलब्ध कराया जाता है। सूर्य का प्रकाश, हवा, पानी और खनिज प्राकृतिक संसाधनों के कुछ उदाहरण हैं। जबकि कुछ प्राकृतिक संसाधन नवीकरणीय हैं और अन्य गैर-नवीकरणीय हैं। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना आवश्यक है ताकि उनका उपयोग अधिक समय तक किया जा सके।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता पर बार-बार जोर दिया गया है। यदि हम इस गति से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते रहेंगे तो हम पर्यावरण में असंतुलन पैदा करेंगे।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, Essay on conservation of natural resources in hindi (200 शब्द)

प्राकृतिक संसाधन विभिन्न प्रकार के होते हैं लेकिन इन्हें बड़े पैमाने पर नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों के कुछ उदाहरण सूरज की रोशनी, पानी, हवा, लकड़ी और मिट्टी हैं। जबकि इनमें से कुछ प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में बहुतायत में उपलब्ध हैं और इन्हें तेजी से फिर से बनाया जा सकता है ताकि अन्य लोगों को नवीनीकृत होने में समय लगे।

कोयला, तेल और प्राकृतिक गैसें गैर-नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों के कुछ उदाहरण हैं। हालांकि पर्यावरण में स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है, इन प्राकृतिक संसाधनों को फिर से भरने या रीसायकल करने में सैकड़ों साल लग जाते हैं।

पर्यावरण संतुलन बनाए रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों की उपस्थिति आवश्यक है। हालांकि, हम उन्हें उपयोग करने से पहले दो बार नहीं सोचते हैं। हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं और वे तीव्र गति से कम हो रहे हैं। हमें प्राकृतिक संसाधनों के महत्व और भविष्य में उपयोग के लिए उनके संरक्षण की आवश्यकता को समझना चाहिए।

हमें विशेष रूप से गैर-नवीकरणीय संसाधनों के साथ-साथ नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करने के लिए सतर्क रहना चाहिए जो फिर से भरने में समय लेते हैं। ये संसाधन हमारी मूलभूत आवश्यकताएं हैं। वे हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। अगर हम उन्हें संरक्षित करने के लिए गंभीर कदम नहीं उठाते हैं, तो हमारे लिए पृथ्वी पर रहना लगभग असंभव हो जाएगा।

हर देश की सरकार को प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व पर जोर देने और अपने नागरिकों को किसी भी प्रकार के अपव्यय से बचने के लिए सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण पर निबंध, 300 शब्द:

प्रस्तावना:.

प्राकृतिक संसाधन ज्यादातर सीमित हैं और यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन्हें बुद्धिमानी से उपयोग करें और हमारी भावी पीढ़ियों के लिए उनका संरक्षण करें। प्राकृतिक संसाधन मानव के साथ-साथ अन्य जीवित प्राणियों के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं। जबकि कुछ प्राकृतिक संसाधन पृथ्वी पर जीवन को संभव बनाते हैं जबकि अन्य इसे सहज बनाते हैं।

भविष्य की पीढ़ी का अस्तित्व:

जल, वायु और सूर्य के प्रकाश जैसे प्राकृतिक संसाधन वातावरण में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ये नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन हैं और मनुष्य को इनकी उपलब्धता के बारे में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हालांकि, कई नवीकरणीय संसाधन जैसे लकड़ी, मिट्टी, आदि हैं जो नवीकरण करने में वर्षों लगते हैं। इस प्रकार इनका सावधानी से उपयोग किया जाना चाहिए।

इसके अलावा, जीवाश्म ईंधन और खनिजों जैसे गैर-नवीकरणीय संसाधनों का बार-बार उपयोग नहीं किया जा सकता है। एक बार सेवन करने पर ये दोबारा नहीं बन सकते। दोनों नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन जीवित प्राणियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं।

हम विभिन्न प्रयोजनों के लिए इनका उपयोग करते हैं। इनमें से कुछ का उपयोग सीधे किया जाता है जबकि अन्य का उपयोग विभिन्न चीजों के निर्माण के लिए किया जाता है जो हमारे द्वारा व्यापक रूप से उपयोग की जाती हैं।

सरकार की भूमिका:

हालांकि लोगों को जिम्मेदारी से व्यवहार करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों को बर्बाद न करें, सरकार को प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए भी कदम उठाना चाहिए। हमें केवल यह सुनिश्चित करने के लिए कठोर कानूनों का निर्माण करना चाहिए कि हमें किसी भी प्रकार के उपयोग से बचना चाहिए और किसी भी प्रकार के अपव्यय से बचना चाहिए।

सरकार को पेड़ों की कटाई, पेट्रोलियम की खपत, खनिजों की बर्बादी और यहां तक ​​कि पानी के उपयोग पर भी नजर रखनी चाहिए। उनकी खपत को सीमित करने के लिए नए तरीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जो भी इनका शोषण करता पाया गया उसे दंडित किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष:

यदि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का उसी दर पर उपयोग करना जारी रखते हैं जो हम वर्तमान में उनका उपयोग कर रहे हैं, तो हम भविष्य में उनमें से बहुत कम ही छोड़ेंगे। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक समस्या पैदा करेगा। हमें प्राकृतिक संसाधनों का सावधानी से उपयोग करना चाहिए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियों को नुकसान न हो।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण पर निबंध, Essay on conservation of natural resources in hindi (400 शब्द)

हमारे प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण की आवश्यकता पर अक्सर जोर दिया जाता है। यह विशेष रूप से पिछले कुछ दशकों से चिंता का एक प्रमुख कारण बन गया है। जबकि वायु, जल और सूर्य के प्रकाश जैसे कई प्राकृतिक संसाधन वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और प्राकृतिक रूप से दूसरों जैसे कि पेट्रोलियम, खनिज और प्राकृतिक गैसों को नवीनीकृत किया जा रहा है और इसे पुनर्नवीनीकरण या नवीनीकृत नहीं किया जा सकता है। ये तेज दर से घट रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और संरक्षण की आवश्यकता है:

हमारे प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण की सख्त जरूरत है। यदि हम अब उनकी रक्षा नहीं करते हैं, तो हम इस ग्रह पर लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाएंगे। इन मूल्यवान संसाधनों की रक्षा और संरक्षण के लिए कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:

प्राकृतिक संसाधन सीमित है

प्राकृतिक संसाधन दो श्रेणियों में विभाजित हैं – नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन और गैर नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन। जबकि कई नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और आसानी से नवीनीकृत हो जाते हैं और दूसरों को फिर से भरने में समय लगता है।

जिन प्राकृतिक संसाधनों के नवीनीकरण में समय लगता है उनमें लकड़ी, मिट्टी और बायोमास शामिल हैं। ऐसे नवीकरणीय संसाधनों का सावधानीपूर्वक उपयोग करना आवश्यक है क्योंकि ये सीमित हैं और हमें स्वाभाविक रूप से फिर से भरने से पहले इंतजार करना होगा। गैर-नवीकरणीय संसाधन जैसे खनिज, धातु और पेट्रोलियम सीमित हैं और ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे हम इनका नवीनीकरण कर सकें। इस प्रकार, उन्हें बुद्धिमानी से उपयोग करने के लिए अत्यधिक महत्व है।

प्राकृतिक संसाधन: मानव जीवन रक्षा के लिए आवश्यक

हमें प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और संरक्षण करने की आवश्यकता है क्योंकि वे मानव और साथ ही अन्य जीवित प्राणियों के अस्तित्व के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। यदि हम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी रखते हैं और उन्हें इस दर पर समाप्त करते हैं, तो हम इस ग्रह पर लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाएंगे।

हम न केवल नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से उपभोग कर रहे हैं और जल्द ही इनको कम करने का जोखिम उठा रहे हैं, बल्कि ये प्रचुर मात्रा में उपलब्ध लोगों की गुणवत्ता को भी खराब कर रहे हैं। प्रदूषण के कारण हवा और पानी की गुणवत्ता कम हो गई है और आने वाले समय में इसके और खराब होने की संभावना है। हमें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और संरक्षण करने की आवश्यकता है ताकि वे वैसा ही आरामदायक जीवन का आनंद ले सकें जैसा हम करते हैं।

अपने प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी से बचने के लिए हम सभी को इसे अपनी जिम्मेदारी के रूप में लेना चाहिए। हमें इन बहुमूल्य संसाधनों के संरक्षण और बातचीत में योगदान देना चाहिए जो प्रकृति ने हमें प्रदान किए हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण पर निबंध, 500 शब्द:

प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में स्वतंत्र रूप से उपलब्ध हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर या तो सीमित हैं या रीसायकल करने में सैकड़ों साल लगते हैं। यही कारण है कि हमें इन संसाधनों का सावधानीपूर्वक उपयोग करना चाहिए और किसी भी प्रकार के अपव्यय से बचना चाहिए। हालाँकि, यह करना आसान है।

मानव विभिन्न उद्देश्यों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने के लिए इतना आदी हो गया है कि उनके बिना रहना मुश्किल है। हमें महसूस नहीं होता है कि ये तेजी से घट रहे हैं और आने वाले समय में हम इनमें से बहुत कुछ नहीं छोड़ सकते हैं। हम जो कल्पना नहीं करते हैं वह यह है कि भविष्य में इन मूल्यवान संसाधनों के बिना जीवन बेहद कठिन हो जाएगा।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के तरीके:

यहाँ प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के कुछ तरीके दिए गए हैं:

बिजली बचाओ

नवीकरणीय और गैर-नवीकरणीय दोनों प्राकृतिक संसाधनों से बिजली का उत्पादन किया जाता है। बिजली का उत्पादन करने के लिए बड़ी मात्रा में जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया जा रहा है। पानी, कोयला, प्राकृतिक गैसों और बायोमास जैसे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए बिजली की बचत एक लंबा रास्ता तय कर सकती है। एयर कंडीशनर के उपयोग को सीमित करना, दिन के समय रोशनी बंद रखना, उपकरणों को अनप्लग करना और उपयोग न करने पर ऊर्जा कुशल उपकरणों का उपयोग करने जैसे सरल अभ्यास मदद कर सकते हैं।

ईंधन बचाओ

पेट्रोल और डीजल जैसे ईंधन, जिस पर हमारे वाहन चलते हैं, पेट्रोलियम से प्राप्त होते हैं जो एक गैर नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन है। हमें अपने परिवहन के साधनों का चयन बुद्धिमानी से करना चाहिए ताकि आने वाले समय में हम ईंधन को बचा सकें। सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना, नियमित कार पूलिंग, इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए चयन करना और लाल बत्ती पर इंजन बंद करना ईंधन बचाने के कुछ तरीके हैं।

कागज का उपयोग प्रतिबंधित करें

कागज लकड़ी से बना है जो एक अक्षय प्राकृतिक संसाधन है। हालांकि, यह एक अक्षय संसाधन है जिसे फिर से भरने में समय लगता है। पेड़ों को तेज गति से काटा जा रहा है और वे उतनी तेजी से नहीं बढ़ते हैं। इस प्राकृतिक संसाधन को नवीनीकृत होने में वर्षों लगते हैं। यही कारण है कि हमें कागज बर्बाद करना बंद करना चाहिए।

कुछ तरीके जिनमें हम ऐसा कर सकते हैं, छपाई करते समय कागज के दोनों किनारों का उपयोग करते हैं, ऑनलाइन बिलों का चयन करते हैं और रीसाइक्लिंग के लिए उपयोग किए गए कागजात भेजते हैं। हमें पेड़ लगाने और अपने आसपास के लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

जल बचाओ

यद्यपि एक अक्षय प्राकृतिक संसाधन, पानी को बचाना आवश्यक है, हम स्वच्छ पानी से बाहर निकल सकते हैं, जिसका उपयोग पीने, खाना पकाने, सफाई और ऐसे अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है। यह हमारी दिनचर्या में छोटे-छोटे बदलाव करके किया जा सकता है जैसे कि नहाते समय बाल्टी से पानी का उपयोग करना चाहिए।

पौधों में पानी देना और कार धोना आदि कार्यों के लिए बौछारों या पाइपों का उपयोग करने के बजाय बाल्टी का प्रयोग करना चाहिए। इसी तरह, दांतों को धोते समय या बर्तन धोते समय उपयोग में नहीं आने पर नल को बंद रखने से पानी की बर्बादी से बचने में मदद मिल सकती है।

अपने भविष्य को सुरक्षित करने और आरामदायक जीवन जीने के लिए, हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों का बुद्धिमानी से उपयोग करना चाहिए। इन संसाधनों के संरक्षण के कई तरीके हैं जैसे कि हमारे परिवहन के साधनों को बुद्धिमानी से चुनना, पेड़ लगाना, बिजली के उपकरणों के उपयोग से बचना और पानी की बर्बादी से बचना।

यदि हम में से प्रत्येक प्राकृतिक संसाधनों के अपव्यय से बचने के लिए इसे एक जिम्मेदारी के रूप में लेता है और सरकार प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग पर एक गंभीर नियंत्रण रखती है, तो इसका संरक्षण करना, आसान हो जाएगा।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण पर निबंध, Essay on conservation of natural resources in hindi (600 शब्द)

प्राकृतिक संसाधन वे संसाधन हैं जिन्हें प्रकृति द्वारा हमें उपलब्ध कराया गया है। इन संसाधनों के उत्पादन में कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं है। सदियों से मनुष्य ने इन संसाधनों का उपयोग अपनी कई जरूरतों को पूरा करने के लिए किया है। इनमें से कई संसाधनों का उपयोग सीधे किया जाता है जबकि अन्य का अप्रत्यक्ष रूप से उपयोग किया जाता है।

इन संसाधनों का उपयोग उन चीजों को तैयार करने के लिए किया जाता है जो हमारे जीवन में काम आती हैं। इन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने से लेकर उनमें से हर एक का दोहन करने के लिए – आदमी ने एक लंबा सफर तय किया है। हमें प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां भी अपने जीवन को आरामदायक बनाने के लिए इनका उपयोग कर सकें।

प्राकृतिक संसाधनों के प्रकार:

मूल रूप से दो प्रकार के प्राकृतिक संसाधन हैं। ये नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन और गैर-नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन हैं। नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन वे संसाधन हैं जिन्हें प्राकृतिक रूप से वायु, जल, सूर्य के प्रकाश, लकड़ी, मिट्टी, आदि के लिए नवीनीकृत किया जा सकता है।

इन्हें आगे दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है – वे प्राकृतिक संसाधन जिन्हें आसानी से नवीनीकृत किया जा सकता है और जिन्हें फिर से भरने में समय लगता है। लकड़ी और मिट्टी दूसरी श्रेणी में आती है। गैर नवीकरणीय संसाधन वे संसाधन हैं जिन्हें पुनर्नवीनीकरण या नवीनीकृत नहीं किया जा सकता है। जबकि इनमें से कुछ प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, अन्य सीमित हैं।

गैर नवीकरणीय संसाधनों के कुछ उदाहरणों में खनिज, प्राकृतिक गैस और धातु शामिल हैं। गैर-नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है और तेजी से दर में कमी हो रही है। चूंकि इनका नवीनीकरण नहीं किया जा सकता है इसलिए ये आने वाले समय में पृथ्वी की सतह से गायब हो जाएंगे क्योंकि हम उनका बुरी तरह से शोषण कर रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण क्यों करना चाहिए?

हमें अक्षय और गैर-नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संरक्षण की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। यही कारण हैं कि हम इस ग्रह पर जीवित हैं और एक आरामदायक जीवन जी रहे हैं। अगर हम उन्हें इस दर पर जारी रखते हैं, तो पृथ्वी पर हमारा अस्तित्व बेहद मुश्किल हो जाएगा।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व पर बार-बार जोर दिया गया है। हालाँकि, हम अभी भी इनका लापरवाही से इस्तेमाल करते हैं। इस मुद्दे को गंभीरता से लेना और इन बहुमूल्य संसाधनों की अनावश्यक बर्बादी को रोकना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। हमें समझना चाहिए कि हमारी लापरवाही भविष्य की पीढ़ियों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती है। अगर हमें इनके उपयोग के लिए प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण नहीं किया गया तो उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कैसे करें?

ऐसे कई तरीके हैं जिनसे प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जा सकता है। सरल प्रथाओं का पालन करने से एक बड़ा अंतर पैदा करने में मदद मिल सकती है।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए, हमें पहले स्वयं को ऐसा करने की आवश्यकता के बारे में याद दिलाना चाहिए। हम अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में विभिन्न चीजों का उपयोग करने के लिए इतने आदी हो गए हैं कि हमें यह महसूस नहीं होता है कि ऐसा करने में हम प्राकृतिक संसाधनों का अच्छी मात्रा में उपभोग कर रहे हैं।

ऐसे कई बार होते हैं जब हम इन चीजों का उपयोग किए बिना कर सकते हैं, लेकिन हम बिना किसी एहसास के इनका अंधाधुंध इस्तेमाल करते रहते हैं कि हम कैसे अपने विलुप्त होने की दिशा में योगदान दे रहे हैं। जिस बिजली का हम उपयोग करते हैं, उस बिजली से हम अपने वाहनों में उपयोग होने वाले ईंधन से लेकर कागज पर हम जो लिखने के लिए उपयोग करते हैं, सब कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होता है।

कमरे से बाहर जाने से पहले लाइट बंद करना, बिजली के उपकरणों को अनप्लग करना, जब वे उपयोग में न हों, कागज की छपाई से बचना और ई-कॉपियों का उपयोग जहां भी आप कर सकते हैं, कपड़े धोने के दौरान कपड़े धोने की मशीन को पूरी तरह से लोड करना और बाल्टी का उपयोग करना स्नान और कपड़े धोने के दौरान शॉवर या पाइप के बजाय प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में मदद कर सकते हैं।

हमारे लिए यह महसूस करना महत्वपूर्ण है कि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। हमें योजनाबद्ध तरीके से इनका उपयोग करना चाहिए ताकि ये बर्बाद न हों। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए उनका संरक्षण करने में मदद करेगा। प्रत्येक व्यक्ति को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वह प्राकृतिक संसाधनों का सावधानीपूर्वक उपयोग करे और उनका संरक्षण करने में योगदान दे।

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विकास नें वाणिज्य में स्नातक किया है और उन्हें भाषा और खेल-कूद में काफी शौक है. दा इंडियन वायर के लिए विकास हिंदी व्याकरण एवं अन्य भाषाओं के बारे में लिख रहे हैं.

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मृदा प्रदूषण पर निबंध (Soil Pollution Essay in Hindi)

मृदा प्रदूषण

पृथ्वी पर एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन मिट्टी है जो प्रत्यक्ष रुप से वनस्पतियों और धरती पर मानव जाति तथा पशुओं को अप्रत्यक्ष रुप से सहायता करती है। रसायनिक खादों, कीटनाशक दवाइयाँ, औद्योगिक कचरों आदि के इस्तेमाल के द्वारा छोड़े गये जहरीले तत्वों के माध्यम से मिट्टी प्रदूषित हो रही है जो बुरी तरह से भूमि की उर्वरता को भी प्रभावित कर रहा है। रसायनों के माध्यम से मिट्टी में अवांछनीय बाहरी तत्वों के भारी सघनता की उपलब्धता के कारण मृदा प्रदूषण मिट्टी के पोषकता को कमजोर कर रहा है।

मृदा प्रदूषण पर छोटे तथा बड़े निबंध (Short and Long Essay on Soil Pollution in Hindi, Mrida Pradushan par Nibandh Hindi mein)

मृदा प्रदूषण: उर्वरक और औद्योगिकीकरण – निबंध 1 (250 शब्द).

मृदा प्रदूषण उपजाऊ भूमि की मिट्टी का प्रदूषण है जो कि धीरे-धीरे उर्वरक और औद्योगिकीकरण के उपयोग के कारण दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। आधुनिक समय में पूरी मानव बिरादरी के लिए मृदा प्रदूषण एक बड़ी चुनौती बन गया है। स्वस्थ जीवन को बनाए रखने के लिए मिट्टी सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। जहाँ यह कई छोटे-छोटे जानवरों का घर है वहीँ यह पौधों का जीवन भी है। मिट्टी का मनुष्यों द्वारा जीवन चक्र को बनाए रखने के लिए विभिन्न फसलों के उत्पादन के लिए भी उपयोग किया जाता है।

हालांकि मानव आबादी में वृद्धि से जीवन को आराम से जीने के लिए फसलों के उत्पादन और अन्य तकनीकी संसाधनों की आवश्यकता बढ़ जाती है। कई अत्यधिक प्रभावी उर्वरक बाजार में उपलब्ध हैं जो फसल उत्पादन को बेहतर बनाने के लिए अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं लेकिन फसल पर इसका छिड़काव करते ही पूरा उर्वर मिट्टी को ख़राब करते हुए प्रदूषण फ़ैला देता हैं।

अन्य कीटनाशकों की किस्में (जैसे फंगीसाइड आदि) भी किसानों द्वारा कीड़े और कवक से अपनी फसलों को बचाने के लिए इस्तेमाल की जा रही हैं। इस प्रकार के कीटनाशक भी बहुत जहरीले होते हैं तथा भूमि और हवा को प्रदूषित करके पर्यावरण में उनके दुष्प्रभावों को फैलाते हैं। मृदा प्रदूषण के अन्य तरीकों में अम्लीकरण, एग्रोकेमिकल प्रदूषण, सेलीनाइजेशन और धातुओं के कचरे द्वारा फैलाया प्रदूषण शामिल है।

एसिडिफिकेशन एक सामान्य प्राकृतिक कारण है जो दीर्घकालिक लीचिंग और माइक्रोबियल श्वसन से जुड़ा हुआ है जिससे धीरे-धीरे मिट्टी के जैविक पदार्थ (जैसे ह्यूमिक और फुल्विक एसिड) विघटित होते हैं जो फिर से लीचिंग को उत्तेजित करता है। उपजाऊ भूमि पर अकार्बनिक उर्वरकों के उपयोग से मिट्टी का प्रदूषण स्तर बढ़ गया है और मिट्टी की उर्वरता कम हो गयी है।

मृदा प्रदूषण के कारण – निबंध 2 (300 शब्द)

मृदा प्रदूषण उपजाऊ मिट्टी का प्रदूषण है जो विभिन्न जहरीले प्रदूषकों की वजह से मिट्टी की उत्पादकता को कम कर देता है। जहरीले प्रदूषक बहुत खतरनाक होते हैं और मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। कीटनाशकों, उर्वरक, रसायन, रेडियोधर्मी अपशिष्ट, जैविक खाद, अपशिष्ट भोजन, कपड़े, प्लास्टिक, कागज, चमड़े का सामान, बोतलें, टिन के डिब्बे, सड़े हुए शव आदि जैसे प्रदूषक मिट्टी में मिल कर उसे प्रदूषित करते हैं जो मृदा प्रदूषण का कारण बनता है। लोहा, पारा, सीसा, तांबा, कैडमियम, एल्यूमीनियम, जस्ता, औद्योगिक अपशिष्ट, साइनाइड, एसिड, क्षार आदि जैसे विभिन्न तरह के रसायनों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषक मृदा प्रदूषण का कारण बनते हैं। अम्लीय वर्षा भी एक प्राकृतिक कारण है जो मिट्टी की उर्वरता को सीधे प्रभावित करती है।

पहले किसी भी उर्वरक के उपयोग के बिना मिट्टी बहुत उपजाऊ होती थी लेकिन अब एक साथ सभी किसानों ने बढ़ती आबादी से भोजन की अत्यधिक मांग के लिए फसल उत्पादन में वृद्धि हेतु तेज़ी से उर्वरकों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कीड़ों, कीटों, कवक आदि से फसलों को सुरक्षित करने के क्रम में मजबूत कार्बनिक या अकार्बनिक कीटनाशकों (डीडीटी, बेंजीन, हेक्सा क्लोराइड, अल्द्रिन) हर्बाइसाइड्स, फंगलसाइड, कीटनाशकों आदि के विभिन्न प्रकार का अनुचित, अनावश्यक और सतत उपयोग धीरे-धीरे मिट्टी को ख़राब कर रहा है। इस तरह के रसायनों के सभी प्रकार पौधों के विकास को रोकते हैं, उनका उत्पादन कम करते हैं तथा फलों के आकार को भी कम कर देते हैं जिससे मानव स्वास्थ्य पर अप्रत्यक्ष रूप से बहुत खतरनाक प्रभाव पड़ता है। ऐसे रसायन धीरे-धीरे मिट्टी और फिर पौधों के माध्यम से अंततः जानवरों और मनुष्यों के शरीर तक पहुँच कर खाद्य शृंखला के माध्यम से अवशोषित हो जाते हैं।

खनन और परमाणु प्रक्रिया जैसे स्रोतों से अन्य रेडियोधर्मी अपशिष्ट पानी के माध्यम से मिट्टी तक पहुंच जाता है तथा मृदा और पौधों, पशुओं (चराई के माध्यम से) और मानव (भोजन, दूध, मांस आदि) को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के भोजन को खाने से विकास में कमी होती है और जानवरों और मानवों में असामान्य वृद्धि होती है। आधुनिक दुनिया में औद्योगीकरण में वृद्धि से दैनिक आधार पर अपशिष्टों का भारी ढेर उत्पन्न होता है जो सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से मिट्टी में मिल जाता है और इसे दूषित करता है।

Soil Pollution Essay

मृदा प्रदूषण: स्वास्थ्य के लिए खतरनाक – निबंध 3 (400 शब्द)

मृदा प्रदूषण ताजा और उपजाऊ मिट्टी का प्रदूषण है जो उसमें पनपने वाली फसलों, पौधों, जानवरों, मनुष्यों और अन्य जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। अवांछित पदार्थों और कई स्रोतों से विषाक्त रसायनों के विभिन्न प्रकार अलग-अलग अनुपात में मिलकर पूरी मृदा के प्रदूषण का कारण बनते है। एक बार जब प्रदूषक मिट्टी में मिश्रित हो जाता है तो वह लंबे समय तक मिट्टी के साथ सीधे संपर्क में रहता है। उपजाऊ भूमि में औद्योगिकीकरण और विभिन्न प्रभावी उर्वरकों की बढ़ती खपत से लगातार धरती की मिट्टी संरचना और उसका रंग बदल रहा है जो पृथ्वी पर जीवन के भविष्य के लिए बहुत खतरनाक संकेत है।

उद्योगों और घरेलू सर्किलों द्वारा जारी किए जाने वाले विषाक्त पदार्थों के मिश्रण के माध्यम से पृथ्वी पर सारी उपजाऊ जमीन धीरे-धीरे प्रदूषित हो रही है। मृदा प्रदूषण के प्रमुख स्रोत औद्योगिक अपशिष्ट, शहरी अपशिष्ट, रासायनिक प्रदूषकों, धातु प्रदूषण, जैविक एजेंट, रेडियोधर्मी प्रदूषण, गलत कृषि पद्धतियां आदि है। औद्योगिक प्रक्रियाओं द्वारा जारी औद्योगिक कचरे में कार्बनिक, अकार्बनिक और गैर-बायोडिग्रेडेबल सामग्रियां होती है जिनमें मिट्टी की भौतिक और जैविक क्षमताएँ बदलने की ताकत होती है। यह पूरी तरह से मिट्टी की बनावट और खनिज, बैक्टीरिया और फंगल कालोनियों के स्तर को बदल कर रख देता है।

शहरी अपशिष्ट पदार्थ ठोस अपशिष्ट पदार्थ होते है जिनमे वाणिज्यिक और घरेलू कचरे शामिल होते हैं जो मिट्टी पर भारी ढेर बनाते हैं और मृदा प्रदूषण में योगदान देते हैं। रासायनिक प्रदूषक और धातु प्रदूषक, कपड़ा, साबुन, रंजक, सिंथेटिक, डिटर्जेंट, धातु और ड्रग्स उद्योगों से औद्योगिक अपशिष्ट हैं जो मिट्टी और पानी में लगातार अपने खतरनाक कचरे को डंप कर रहे हैं। यह सीधे मिट्टी के जीवों को

प्रभावित करता है और मिट्टी के प्रजनन स्तर को कम करता है। जैविक एजेंट (जैसे कि बैक्टीरिया, शैवाल, कवक, प्रोटोजोआ और निमेटोड्स, मिलीपैड, केचुएँ, घोंघे आदि जैसे सूक्ष्म जीव) मिट्टी के भौतिक-रासायनिक तथा जैविक वातावरण को प्रभावित करते हैं और मृदा प्रदूषण का कारण बनते हैं।

परमाणु रिएक्टरों, विस्फोटों, अस्पतालों, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं आदि जैसे स्रोतों से कुछ रेडियोधर्मी प्रदूषक मिट्टी में घुस जाते हैं और लंबे समय तक वहां रहकर मृदा प्रदूषण का कारण बनते हैं। अग्रिम कृषि-प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वाली गलत कृषि पद्धति (कीटनाशकों सहित विषाक्त उर्वरकों की भारी मात्रा में उपयोग) से धीरे-धीरे मिट्टी की शारीरिक और जैविक संपत्ति में गिरावट आ जाती है। मृदा प्रदूषण के अन्य स्रोत नगरपालिका का कचरा ढेर, खाद्य प्रसंस्करण अपशिष्ट, खनन प्रथाएं आदि हैं।

मृदा प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक है क्योंकि विषाक्त रसायन शरीर में खाद्य श्रृंखला के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं और पूरे आंतरिक शरीर प्रणाली को परेशान करते हैं। मृदा प्रदूषण को कम करने और प्रतिबंधित करने के लिए पर्यावरण संरक्षण कानूनों सहित सभी प्रभावी नियंत्रण उपायों का अनुसरण लोगों द्वारा विशेष रूप से उद्योगपति द्वारा किया जाना चाहिए। ठोस अपशिष्टों के रीसाइक्लिंग और पुन: उपयोग तथा लोगों के बीच जहाँ तक संभव हो सके वृक्षारोपण को भी बढ़ावा देना चाहिए।

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Soil Pollution Essay in Hindi – मृदा प्रदूषण पर निबंध

मृदा प्रदूषण पर निबंध soil pollution essay in hindi

मृदा प्रदूषण पर निबंध हिंदी में – Essay on Soil Pollution in Hindi

मृदा प्रदूषण पर निबंध (Essay on Soil Pollution in Hindi) – इस लेख में हम भूमि प्रदूषण के प्रमुख कारण, प्रभाव, रोकने के उपाय पर विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे | प्रदूषण सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए जानलेवा है यह आज का मानव अच्छे से समझ चूका है। प्रदूषण के कई प्रकार हैं – वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और भूमि प्रदूषण। इस लेख में हम भूमि प्रदूषण के बारे में जानकारी ले कर आए हैं। आशा है यह लेख आपके लिए कई मायनों में सहायक सिद्ध होगा।

संकेत बिंदु – (Content)

भूमि प्रदूषण का अर्थ

  • भूमि प्रदूषण के कारण
  • भूमि प्रदूषण के स्त्रोत
  • भूमि प्रदूषण के परिणाम व् प्रभाव
  • भूमि प्रदूषण को रोकने के उपाय

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प्रस्तावना – Preface

जल और वायु की तरह मिट्टी भी हमारी मूल आवश्यकता है। वनस्पति, अनाज और पेड़ पौधों की जननी मिट्टी ही है। साफ मिट्टी पेड़ पौधों, पशुओं और मनुष्यों के विकास के लिए बहुत ही जरूरी है। भूमि में पाए जाने वाले तत्वों में से किसी का भी असंतुलित होना ही भूमि प्रदुषण है।

दूषित भूमि फसलों और जीवों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। ठोस कचरे के कारण भूमि प्रदूषण होता है। अपशिष्ट उत्पादों की बढ़ती मात्रा और उचित अपशिष्ट निपटान विकल्पों की कमी के कारण समस्या दिन पर दिन बढ़ रही है। कारखानों और घरों से अपशिष्ट उत्पादों को खुले स्थानों में निपटाया जाता है जिससे भूमि प्रदूषण होता है।

भूमि प्रदूषण विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण और प्राकृतिक कारकों के कारण भी होता है। भूमि प्रदूषण के कुछ कारणों में कीटनाशकों का उपयोग, औद्योगिक और कृषि अपशिष्टों के निपटान के लिए विकल्पों की कमी, वनों की कटाई, बढ़ते शहरीकरण, अम्लीय वर्षा और खनन शामिल हैं। ये सभी कारक कृषि गतिविधियों में बाधा डालते हैं और जानवरों और मनुष्यों में विभिन्न बीमारियों का कारण भी हैं।

भूमि-प्रदूषण को परिभाषित करते हुए हम कह सकते हैं कि – “भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई अवांछित परिवर्तन जिसका प्रभाव मनुष्य एवं अन्य जीवों पर पड़े या भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो भूमि-प्रदूषण कहलाता है।”

पृथ्वी के धरातल के एक-चौथाई भाग पर भूमि है, किंतु उसमें मानव उपयोग की भूमि केवल 280 लाख वर्ग मील है। इस भूमि का समुचित एवं सही उपयोग आज संपूर्ण विश्व का उत्तरदायित्व है, किंतु विश्व में हो रही जनसंख्या वृद्धि से भूमि उपयोग में विविधता एवं सघनता आई है।

फलस्वरूप उसका अनुपयुक्त तरीके से उपयोग किया जा रहा है। परिणामस्वरूप ‘भूमि-प्रदूषण’ की समस्या का जन्म हुआ है जो आज विश्व के अनेक भागों में एक प्रमुख समस्या बन गई है। ‘भूमि’अथवा ‘भू’एक व्यापक शब्द है, जिसमें पृथ्वी का संपूर्ण धरातल समाहित है, किंतु मूल रूप से भूमि की ऊपरी परत, जिस पर कृषि की जाती है एवं मानव जीविका-उपार्जन की विविध क्रियाएँ करता है, वह विशेष महत्व की है। इस परत अथवा भूमि का निर्माण विभिन्न प्रकार की शैलों से होता है जिनका क्षरण मृदा को जन्म देता है। जिसमें विभिन्न कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों का सम्मिश्रण होता है। वहीं से भूमि-प्रदूषण का प्रारंभ होता है।

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भूमि प्रदूषण के कारण – Due to land pollution

भूमि प्रदूषण सम्पूर्ण प्राणी जगत के विकास में बाधा पहुँचता है क्योंकि भूमि ही प्राणी जगत के जीवन यापन के लिए भोजन व् अन्य आवश्यक वस्तुओं को उत्पन्न करने में सक्षम है। परन्तु मानव अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने भविष्य से भी खिलवाड़ करता हुआ भूमि को प्रदूषित करता जा रहा है। भूमि प्रदूषण विभिन्न कारणों से होता है – (i) घर, अस्पताल, स्कूल और बाजार में उपयोग की जाने वाली सामग्री में प्लास्टिक कंटेनर, डिब्बे, प्लास्टिक, इलेक्ट्रॉनिक सामान आदि पर उत्पन्न ठोस अपशिष्ट की श्रेणी में आते हैं। इनमें से कुछ बायोडिग्रेडेबल हैं और अन्य गैर-बायोडिग्रेडेबल हैं और निपटान के लिए कठिन हैं। यह गैर-बायोडिग्रेडेबल अपशिष्ट है जो बड़े भूमि प्रदूषण का कारण बनता है। (ii) मानव की विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगलों को तीव्र गति से काटा जा रहा है। मिट्टी के लिए पेड़ आवश्यक हैं क्योंकि वे विभिन्न आवश्यक पोषक तत्वों को बनाए रखने में मदद करते हैं। खनन, शहरीकरण और अन्य कारणों से पेड़ों को काटना भूमि प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले कारक हैं। (iii) रासायनिक अपशिष्ट का निपटान मुश्किल है। कीटनाशकों, कीटनाशकों और उर्वरकों से प्राप्त तरल और ठोस अपशिष्ट दोनों को या तो लैंडफिल या अन्य स्थानों पर फेंक दिया जाता है। यह मिट्टी को खराब करता है और भूमि प्रदूषण का एक और प्रकार बनाता है। (iv) फसलों की अधिक उपज सुनिश्चित करने के लिए किसानों द्वारा इन दिनों कई उच्च अंत कृषि तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। इन तकनीकों के अधिक उपयोग जैसे कि कीटनाशकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी का क्षरण करता है। ऐसी जमीन में उगाए गए फल और सब्जियाँ भी स्वस्थ नहीं मानी जाती हैं। इसे एक प्रकार का भूमि प्रदूषण माना जाता है। (v) घरों से फेंके जाने वाले टूटे काँच, प्लास्टिक, फर्नीचर और पॉलिथीन आदि से भी भूमि प्रदूषण होता है। (vi) उघोगो से निकलने वाले रसायनों से भी भूमि प्रदूषण होती है क्योंकि भारी धातु मिट्टी पर जमा हो जाती है और भूमि को दूषित करती है। (vii) भूमि से खनिज तेलों को निकालने के लिए खुदाई के दौरान तेल कई बार जमीन पर गिर जाता है और मिट्टी को दूषित करता है। (viii) बारिश के दौरान हवा में मौजुद दुषित पदार्थ जमीन पर आ जाते है और भूमि को दुषित करते है।

भूमि प्रदूषण के स्त्रोत – भूमि प्रदूषण विभिन्न प्रकार के अनुपयोगी अपशिष्ट पदार्थों के भूमि में जमा होने का परिणाम है। यह अपशिष्ट पदार्थ, घरेलू, सार्वजनिक, औद्योगिक, खनिज खनन एवं कृषि अपशिष्ट के रूप में होता है। इसी के आधार पर भूमि प्रदूषण के स्त्रोतों की निम्न श्रेणियाँ की जा सकती हैं – (i) घरेलू अपशिष्ट (ii) औद्योगिक एवं खनन अपशिष्ट (iii) नगरपालिका अपशिष्ट (iv) कृषि अपशिष्ट (i) घरेलू अपशिष्ट – भूमि प्रदूषण का एक बड़ा भाग घरेलू अपशिष्ट की देन है। घरों में प्रतिदिन सफाई करने के पश्चात् गंदगी निकलती है। इसमें जहाँ एक ओर धूल-मिट्टी होती है, वहीं दूसरी ओर कागज, कपड़ा, प्लास्टिक, लकड़ी, धातु के टुकड़े आदि भी होते हैं। इसके साथ ही सब्जियों के बचे भाग, फलों के छिलके, चाय की पत्तियाँ, अन्य सड़े-गले पदार्थ, सूखे फूल-पत्तियाँ, खराब हुए खाद्य पदार्थ आदि भी सम्मिलित होते हैं। ये सभी पदार्थ घरों से सफाई के समय एकत्र कर किसी स्थान पर डाल दिया जाता है। विकसित देशों में इस कूड़ा-करकट को ढकने एवं निस्तारण की व्यवस्था होती है। परंतु भारत या अन्य विकासशील देशों में अधिकांशत: इस प्रकार की व्यवस्था का अभाव होने से, यह अपशिष्ट पदार्थ सड़ता रहता है, इसमें विभिन्न जीवाणु उत्पन्न होते रहते हैं जो प्रदूषण और अंत में रोग का कारण बनते हैं।

(ii) औद्योगिक एवं खनन अपशिष्ट – औद्योगिक संस्थानों से बहुत अधिक मात्रा में कूड़ा-करकट एवं अपशिष्ट पदार्थ निकलता है। यह कचरा प्रत्येक उद्योग में चाहे वह धातु उद्योग हो या रासायनिक उद्योग हो सभी से निकाला जाता है और उद्योग के निकट खुले में छोड़ दिया जाता है। इसमें अनेक गैसें एवं रासायनिक तत्व न केवल वायु मण्डल अपितु भूमि को भी प्रदूषित करते हैं। अनेक उद्योगों से बहुत अधिक मात्रा में राख भी निकलती है। अनेक विषैले, अम्लीय एवं क्षारीय पदार्थ भूमि को अनुपयोगी कर देते हैं। कभी-कभी ये पदार्थ उद्योगों के निकट ही दबा दिए जाते हैं, जो भूमि प्रदूषण के रूप में भूमि को अनुपयोगी बना देते हैं। (iii) नगरपालिका अपशिष्ट – नगरपालिका अपशिष्ट से तात्पर्य सार्वजनिक रूप से एकत्र होने वाली गंदगी से है। इसमें घरेलू अपशिष्ट तो सम्मिलित हैं ही जिन्हें सार्वजनिक रूप से एकत्र किया जाता है, साथ में मल-मूत्र का एकत्र हो जाना प्रमुख है। इसके अतिरिक्त विभिन्न संस्थानों, बाजारों, सड़कों से एकत्रित गंदगी, मृत जानवरों के अवशेष, मकानों आदि के तोड़ने से निकले पदार्थ आदि भी इसमें शामिल हैं। वास्तव में शहर या कस्बे की संपूर्ण गंदगी नगरपालिका अपशिष्ट की श्रेणी में ही आती है। यह नगरपालिका अपशिष्ट भूमि प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। (iv) कृषि अपशिष्ट – कृषि अपशिष्ट में कृषि के उपरांत उसका बचा भूसा, डंठल, घास-फूस, पत्तियाँ आदि एक स्थान से एकत्र कर दिया जाता है या फैला रहता है। इस पर पानी गिरने से यह सड़ने लगता है तथा जैविक क्रिया होने से यह प्रदूषण का कारण बन जाता है। वैसे अन्य स्त्रोतों की तुलना में यह अधिक गंभीर समस्या नहीं है क्योंकि अब अधिकांश कृषि अपशिष्टों को किसी न किसी रूप में उपयोग में ले लिया जाता है।

हमारे देश में नगरों में मिश्रित पदार्थ, राख एवं अग्नि मिट्टी तथा कार्बन के रूप में लगभग 90 प्रतिशत कूड़ा-करकट होता है। जबकि विकसित देशों में इसकी मात्रा भिन्न है। संयुक्त राज्य अमेरिका में 42 प्रतिशत कागज एवं उससे संबंधित वस्तुएँ, 24 प्रतिशत धातु, ग्लास-चीनी मिट्टी के टुकड़े एवं राख, 12 प्रतिशत अपशिष्ट खाद्य एवं शेष अन्य वस्तुएँ होती हैं। वास्तविकता यह है कि अपशिष्ट की मात्रा नगरों के आकार एवं विकास तथा विस्तार के साथ अधिक होती जाती है।

भूमि प्रदूषण के परिणाम – Land pollution results वर्तमान में सबसे बड़ी चिंता का कारण बढ़ता हुआ प्रदूषण है। यह पर्यावरण के साथ-साथ जीवित प्राणियों को भी अपूरणीय क्षति पहुँचा रहा है। सभी प्रकार के प्रदूषण प्राणी जगत के लिए बहुत अधिक घातक हैं। इन प्रदूषणों के परिणाम बहुत अधिक नुकसानदायक होते हैं। भूमि प्रदूषण के विभिन्न हानिकारक परिणाम निम्नानुसार हैं – (i) कुछ दिनों के लिए एक क्षेत्र में जमा अपशिष्ट उत्पाद दूषित हो जाते हैं और दुर्गंध पैदा करते हैं। ऐसे क्षेत्रों से गुजरना इस वजह से बेहद मुश्किल हो सकता है।  भूमि प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों से लोगों को डर लगता है। आस-पास के डंपिंग ग्राउंड वाले क्षेत्रों में रहना असंभव होता है। इसके अलावा, इन क्षेत्रों से जो दुर्गंध-युक्त गंध आती है वह लगातार एक बड़ा नुक्सान है। (ii ) कचरा डंपिंग ग्राउंड के पास स्थित इलाकों में जमीन की कीमत तुलनात्मक रूप से कम है, क्योंकि इस क्षेत्र को रहने लायक नहीं माना जाता है। कम दरों के बावजूद, लोग यहां संपत्ति किराए पर लेना या खरीदना पसंद नहीं करते हैं। (iii) विषाक्त पदार्थ जो भूमि को दूषित करते हैं, वे मनुष्यों के श्वसन तंत्र के साथ-साथ जानवरों को भी बाधित कर सकते हैं। यह विभिन्न श्वसन रोगों का कारण भी है जो मानव जाति के लिए घातक साबित हो रहे हैं। (iv) लैंडफिल को अक्सर अपशिष्ट उत्पादों से छुटकारा पाने और भूमि प्रदूषण को कम करने के लिए जलाया जाता है। हालाँकि, इससे वायु प्रदूषण होता है जो पर्यावरण और जीवन के लिए उतना ही बुरा है। (v) भूमि प्रदूषण के कारण लोग अपशिष्ट पदार्थों के सीधे संपर्क में आते हैं, जिसके कारण त्वचा की एलर्जी और अन्य त्वचा की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। (vi) भूमि प्रदूषण भी विभिन्न प्रकार के कैंसर का एक कारण है। विषाक्त पदार्थों से भरी हुई भूमि मच्छरों, मक्खियों, चूहों, कृन्तकों और ऐसे अन्य प्राणियों के लिए एक प्रजनन भूमि है। इन छोटे जीवों के कारण संचरित रोग सभी को ज्ञात हैं। विभिन्न प्रकार के बुखार और बीमारियाँ इनकी वजह से बढ़ रही हैं। (vii) कीटनाशकों और अन्य रसायनों के अधिक उपयोग के कारण होने वाला भूमि प्रदूषण कृषि भूमि को दूषित करता है। (viii) मिट्टी पर उगाई गई सब्जियाँ और फल जो दूषित हैं, विभिन्न प्रकार के रोगों का कारण बनते हैं। (ix) भूमि प्रदूषण के कारण भूमि की उपजाऊ शक्ति खत्म होती जा रही है, जिसकी वजह से फसले भी अच्छी नहीं होती। जिसके चलते हमें अच्छा भोजन नहीं मिलता। (x) लोगों ने फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए उनमें टीके लगाने शुरू कर दिए हैं, जो कि मानव शरीर को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। (xi ) भूमि यह हमारे खान एक मुख्य साधन होता हैं। मनुष्य ज्यादातर तो खेती पर ही निर्भर करता हैं। भूमि दूषित होने के कारण मानवी स्वास्थ्य, फसलों और पेड़-पौधों पर बहुत बुरा असर पड़ता हैं।

भूमि प्रदूषण को रोकने के उपाय – भूमि प्रदूषण दिन-पर-दिन भयंकर रूप धारण करता जा रहा है। यदि समय पर भूमि प्रदूषण पर रोक नहीं लगाई गई तो यह विकराल रूप धारण कर लेगा और फिर इससे छुटकारा पाना असंभव हो जाएगा। भूमि प्रदूषण हर समय बढ़ रहा है और इसलिए इसके हानिकारक परिणाम हैं। जबकि सरकार और अन्य संगठन इस पर नियंत्रण करने के लिए अपने स्तर पर काम कर रहे हैं, परन्तु जब तक सभी अपना सम्पूर्ण योगदान नहीं देते तब तक किसी भी प्रकार के प्रदूषण पर नियंत्रण कर पाना केवल एक स्वप्न मात्र रह जाएगा। हम अपने दैनिक जीवन में कुछ छोटे बदलाव करके भी इसे कम करने की दिशा में योगदान कर सकते हैं। भूमि प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए हम निम्नलिखित तरीकों को अपना सकते हैं – (i) जहां भी संभव हो, गैर-बायोडिग्रेडेबल उत्पादों के बजाय बायोडिग्रेडेबल उत्पादों का उपयोग करें। ऐसा इसलिए है क्योंकि बायोडिग्रेडेबल कचरे का निपटान करना आसान है। (ii) भोजन है जो कीटनाशकों के उपयोग के बिना उगाया जाता है। इस तरह के खाद्य उत्पादों को कीटनाशक या उर्वरक मुक्त चिह्नित किया जाता है ताकि आप दूसरों से आसानी से अलग कर सकें। यह किसानों को कीटनाशकों के उपयोग से बचने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

(iii) यदि आपके पास जगह है तो घर पर जैविक सब्जियां और फल उगाने के लिए यह एक अच्छा विचार है। (iv) इन दिनों पैकेजिंग पर बहुत सारे कागज, रिबन और अन्य सामग्री बर्बाद हो जाती है। यह उन उत्पादों के लिए जाने का सुझाव दिया गया है जिनकी पैकेजिंग बहुत कम है। (v) पॉली बैग के उपयोग से बचें। सरकार ने कई राज्यों में इन बैगों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, हालांकि लोग अभी भी इनका उपयोग करते हैं। पॉली बैग का निपटान करना मुश्किल है और भूमि प्रदूषण में बहुत योगदान देता है। (vi) यह भी सुझाव दिया जाता है कि प्लास्टिक के बर्तनों और अन्य प्लास्टिक वस्तुओं का उपयोग न करें। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी भी रूप में प्लास्टिक का निपटान करना मुश्किल है। (vii) जब आप खरीदारी के लिए जाएँ तो कागज या कपड़े की थैलियों का उपयोग करें क्योंकि ये पुन: प्रयोज्य होते हैं। (viii) दो अलग-अलग डस्टबिन में गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग निपटाने से कचरा अलग हो जाता है। (ix) भारत सरकार ने पहले ही इस अभियान को शुरू कर दिया है और अपशिष्ट उत्पादों के अलगाव के लिए हरे और नीले डस्टबिन वितरित किए हैं। देश भर के विभिन्न शहरों में विभिन्न क्षेत्रों में कई हरे और नीले डस्टबिन लगाए गए हैं। (x) कागज बर्बाद मत करो, इसके उपयोग को सीमित करें। जहाँ भी संभव हो इसका उपयोग करने से बचें। कागज बनाने के लिए प्रत्येक वर्ष कई पेड़ काटे जाते हैं। पेड़ों का कटना भी भूमि प्रदूषण का एक कारण है। डिजिटल जाना एक अच्छा विचार है। (xi) पेपर वाइप्स या टिश्यू के बजाय कपड़े या पुन: उपयोग योग्य डस्टर और झाड़ू का उपयोग करें। (xii) भूमि प्रदूषण बहुत सी हानियाँ पहुँचाता है, अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ साझा करके इन विचारों के बारे में जागरूकता फैलाएँ। (xiii) घरों का कचरा बाहर खुले में नहीं फेंकना चाहिए, उसके लिए सरकार द्वारा कूड़ा के लिए गाड़ी भेजी जानी चाहिए। (xiv) खनिजों को भी सावधानी से निकालना चाहिए और भविष्य के लिए भी बचाकर रखना होगा। (xv) हमें वायु को भी कम दुषित करना चाहिए ताकि अमलीय वर्षा न हो। (xvi) हमें ऐसी चीजों का इस्तमाल करना चाहिए जिन्हें हम दोबारा से प्रयोग में ला सके। हमें रिसयकल की आदत अपनानी चाहिए।

  उपसंहार –

हमारी मिट्टी हमारी मूल जरूरत है। अगर भूमि ऐसे ही प्रदूषित होती रहेगी तो हम सब का जीवन असंतुलित हो जाएगा और एक दिन ऐसा भी आएगा जब हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं होगा। इसलिए हम सभी लोगों को भूमि प्रदूषण को बचाने के लिए मिल जुलकर प्रयास करना चाहिए।

इस तथ्य पर कोई संदेह नहीं है कि हमारे जीवन को और अधिक आरामदायक बनाने के प्रयास में हम पर्यावरण को बर्बाद कर रहे हैं। स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीने के लिए हमें मिट्टी प्रदूषण को कम करने की दिशा में काम करना चाहिए। भूमि प्रदूषण कई बीमारियों को जन्म दे रहा है और स्वस्थ जीवन जीना मुश्किल बना रहा है। भूमि प्रदूषण, प्रदूषण के अन्य विभिन्न रूपों की तरह, पर्यावरण के लिए खतरा है। हम अक्सर शिकायत करते हैं कि सरकार भूमि प्रदूषण को कम करने के लिए उचित उपाय नहीं कर रही है।

लेकिन सरकार गली मुहल्लों में घूम-घूम कर भूमि प्रदूषण को नियंत्रित नहीं कर सकती। हम सभी को चाहिए कि हम सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों का ईमानदारी से पालन करें। यह उच्च समय है जब हमें व्यक्तिगत स्तर पर जो भी प्रयास किया जा सकता है, उन्हें करने से पीछे नहीं हटाना चाहिए। प्रदूषण स्तर को कम करने के लिए हमें अपने कर्तव्य को समझना चाहिए।

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मिटटी या मृदा प्रदुषण पर निबंध Essay on Soil Pollution in Hindi or Land Pollution

नीचे , हमने स्कूल के छात्रों की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न शब्द सीमाओं के तहत मिट्टी प्रदूषण या मृदा प्रदुषण पर निबंध दिया है। मिट्टी प्रदूषण का निबंध विशेष रूप से स्कूल या विद्यालय के बाहर निबंध लेखन प्रतियोगिता में छात्रों की मदद करने के लिए सरल और आसान शब्दों का उपयोग करके लिखा गया हैं।

Table of Content

मिटटी या मृदा प्रदुषण पर निबंध Essay on Soil Pollution in Hindi (Land Pollution Kya hai)

मिट्टी जैविक और अकार्बनिक सामग्री की पतली परत है , जो पृथ्वी की चट्टानी सतह को ढक कर रखती है। मूल सामग्री से मिट्टी का निर्माण करने मे कई कारक योगदान देते हैं।

इसमें तापमान में परिवर्तन के कारण चट्टानों के यांत्रिक मौसम , घर्षण , हवा , पानी का बहना , ग्लेशियरों , रासायनिक अपक्षय गतिविधियों और लाइकेन आदि शामिल है| सतह की कूड़े की परत ताजी-गिरती और आंशिक रूप से विघटित पत्तियां , टहनियां , पशु कचरे , कवक और अन्य जैविक मल ‘ मृदा की ऊपरी सतह ‘ के रूप में जानी जाती हैं।

कारण Causes of Soil Pollution in Hindi

मृदा प्रदुषण के कारण  –

प्रभाव Effect of Soil Pollution

नियंत्रण control of soil pollution.

मृदा प्रदुषण को नियंत्रण कैसे करें –

essay on soil conservation in hindi

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Essay on Soil Conservation

Students are often asked to write an essay on Soil Conservation in their schools and colleges. And if you’re also looking for the same, we have created 100-word, 250-word, and 500-word essays on the topic.

Let’s take a look…

100 Words Essay on Soil Conservation

Introduction.

Soil conservation is the process of preventing soil erosion and maintaining its fertility. It is crucial for our environment and food production.

Importance of Soil Conservation

Soil is a vital resource that supports plant life. Conserving it ensures food security and protects biodiversity.

Methods of Soil Conservation

There are several ways to conserve soil. These include contour ploughing, terrace farming, and using cover crops to protect the soil surface.

In conclusion, soil conservation is essential for sustainable agriculture and a healthy environment. We all should contribute to it.

250 Words Essay on Soil Conservation

The importance of soil conservation.

Soil is a non-renewable resource that serves as the lifeblood of the biosphere, supporting plant growth and acting as a habitat for billions of organisms. Soil degradation, therefore, threatens biodiversity, food security, and climate regulation.

Several techniques are employed in soil conservation. Contour plowing, for instance, involves plowing along the contour lines of a hill to create a water break and prevent soil erosion. Similarly, crop rotation helps maintain soil fertility by alternating the types of crops planted, reducing the risk of pest and disease outbreaks.

Challenges and Future Directions

Despite the known benefits of soil conservation, implementation remains a challenge due to factors such as lack of awareness, financial constraints, and climate change. For effective soil conservation, there is a need for concerted efforts by farmers, policymakers, and researchers. Future directions should focus on innovative conservation techniques and policies that incentivize their adoption.

In conclusion, soil conservation is an urgent priority for sustainable agriculture and environmental preservation. As we face the challenges of a growing population and climate change, it is more important than ever to protect this vital resource.

500 Words Essay on Soil Conservation

Soil conservation is a critical environmental concern that has far-reaching implications for the sustainability of our planet. It encompasses the strategies and methods used to prevent soil erosion, maintain soil fertility, and protect the soil from degradation. This essay delves into the importance of soil conservation, the methods employed, and the role of individuals and institutions in this vital endeavor.

Various methods have been developed to conserve soil, each suitable for different scenarios. These include agronomic, mechanical, and vegetative measures.

Agronomic methods involve crop rotation, contour plowing, and the use of cover crops, which improve soil structure and prevent erosion. Mechanical methods, such as terracing and the construction of bunds, physically alter the landscape to reduce the velocity of water, thus minimizing soil erosion.

The Role of Individuals and Institutions

Individuals play a significant role in soil conservation. Simple practices like composting organic waste, planting trees, and reducing the use of chemical fertilizers can contribute to soil health. On a larger scale, farmers can adopt sustainable farming practices like organic farming, permaculture, and conservation agriculture.

Institutions, both governmental and non-governmental, play a pivotal role in soil conservation. They formulate policies, enforce regulations, conduct research, and raise awareness about the importance of soil conservation. For instance, the United Nations’ Food and Agriculture Organization (FAO) runs a Global Soil Partnership that promotes sustainable soil management worldwide.

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    Soil conservation

  22. Essay on Soil Conservation

    Introduction. Soil conservation is a critical environmental concern that has far-reaching implications for the sustainability of our planet. It encompasses the strategies and methods used to prevent soil erosion, maintain soil fertility, and protect the soil from degradation. This essay delves into the importance of soil conservation, the ...